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________________ कुलमीमांसा 141 इतना स्पष्ट है कि यहाँ पर जिस अर्थमें कुल शब्द आया है अन्यत्र कुल या वंश शब्द उस अर्थमें नहीं आये हैं / कुल और वंशके अर्थका साधार विचार__हो सकता है कि चरणानुयोग और प्रथमानुयोगमें आये हुए कुल या वंश शब्दका हम जो अर्थ कर आये हैं, साधार स्पष्टीकरण किये विना उतने मात्रसे मनीषीगण सम्मत न हों, इसलिए यहाँ पर आधारके साथ उनका विचार किया जाता है। सर्व प्रथम हमें कुल शब्द आचार्य कुन्दकुन्दके साहित्यमें दृष्टिगोचर होता है / प्रवचनसारके चारित्र अधिकारमें आचार्य की विशेषताका निर्देश करते हुए वे कहते हैं कि मुनिदीक्षाके लिए उद्यत हुआ भव्य कुलविशिष्ट आचार्यके पास दीक्षा स्वीकार करे / इसकी व्याख्या करते हुए अमृतचन्द्र श्राचार्य कहते हैं कि जो कुलक्रमसे आये हुए क्रूरता आदि दोषोंसे रहित हो ऐसे आचार्यके पास दीक्षा लेनी चाहिए / आचार्यको शिष्योंका अनुशासन करना पड़ता है, इसलिए उसका क्रूरता दोषसे रहित होना आवश्यक हैं। इसका तात्पर्य इतना ही है कि जिसकी पूर्ववर्ती आचार्य परम्परा शिष्यों के साथ मानवोचित सौम्य व्यवहार करती आई हो ऐसी प्रसिद्ध आचार्य परम्पराके आचार्य के पास जाकर ही प्रत्येक भव्यको दीक्षा स्वीकार करनी चाहिए। स्पष्ट है कि यहाँ पर कुल शब्द आचार्य परम्पराको सूचित करता है, रक्तपरम्पराको नहीं। इसके बाद यह कुल शब्द रत्नकरण्डश्रावकाचारमें दृष्टिगोचर होता है। वहाँ यह शब्द सम्यग्दृष्टिके विशेषणरूपसे आया है। वहाँ पर बतलाया गया है कि सम्यग्दर्शनसे पवित्र हुए मनुष्य महाकुलवाले मानवतिलक होते हैं। यह तो स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टि मरकर चारों गतियोंमें उत्पन्न होते हैं और यह भी स्पष्ट है कि चारों गतियोंके पर्याप्त संज्ञी जीव अपने-अपने योग्य कालमें सम्यग्दर्शनको उत्पन्न भी कर सकते हैं, इसलिए यहाँ पर इस शब्दका जो मनुष्य सम्यग्दृष्टि हैं वे महाकुलवाले हैं यही अर्थ होता है। इससे प्रतीत होता है कि यहाँ पर
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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