________________ गोत्रमीमांसा 137 और विस्तारके साथ समग्र जैन साहित्यका आलोढन करने पर विदित होता है कि मध्यकालके पूर्व जैन वाङ्मयमें यह विचार ही नहीं आया था कि ब्राह्मण आदि तीन वर्णके मनुष्य ही दीक्षाके योग्य हैं अन्य नहीं / अधिकसे अधिक इस विचारको या इसी प्रकार के दूसरे उल्लेखोंको मध्यकालका पुगणधर्म ( सरागी और छमस्थ राजा द्वारा प्रतिपादित धर्म) कह सकते हैं आईत धर्म नहीं, क्योंकि महापुराणमें भी इस प्रकारका कथन आचार्य जिनसेनने भरत चक्रवर्तीके सुखसे ही कराया है, आदिनाथ जिनके मुखसे नहीं। ___ अब जिस प्रश्नको हमने प्रारम्भमें उठाया था वही शेष रह जाता है कि जिस प्रकार सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्तिके समय परिणाम आदिका विचार किया गया है उस प्रकार गोत्रका विचार क्यों नहीं किया गया ? समाधान यह है कि जिस प्रकार अमुक प्रकारके परिणाम आदिके रहते हुए ही सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्ति होती है अमुक प्रकारके परिणाम आदिके रहते हुए नहीं, इसलिए सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्तिके समय कौन परिणाम होता है आदिका विचार करना आवश्यक है उस प्रकार अमुक गोत्रके होने पर ही सम्यग्दर्शन आदिको उत्पत्ति होती है अमुक गोत्र के होने पर नहीं ऐसा कोई नियम नहीं है, इसलिए आगममें सम्यग्दर्शन आदिको उत्पत्तिके समय कौन गोत्र होता है इसका विचार नहीं किया है / : व्यावहारिक दृष्टि से यदि इस बातका स्पष्टीकरण किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार ब्राह्मण धर्ममें यह परिपाटी प्रचलित है कि अध्ययन आदि करनेके पूर्व आचार्य शिष्यका नाम, माता-पिताका नाम, जाति नाम और गोत्रनाम आदि पूछकर यह ज्ञात होने पर कि यह उच्च जाति और उच्च गोत्रका है तथा अंगुक गाँवका रहनेवाला अमुकका पुत्र है उसे अध्ययन आदिकी अनुज्ञा देते थे उस प्रकार जैनधर्ममें इन सब बातोंके पूछनेकी परिपाटी कभी भी नहीं रही है। करणानुयोगके अनुसार तो दीक्षा को कोई स्थान ही नहीं है / चरणानुयोगके अनुसार दीक्षाको स्थान है और