________________ 138 . वर्ण, जाति और धर्म वह दी भी जाती है तो भी इसके अनुसार ऊपरी लक्षणोंसे जो निकट भन्य' दिखलाई देता था उसे धर्मका अधिकारी मानकर अपने परिणाम और शक्तिके अनुसार वह धर्ममें स्वीकार कर लिया जाता था। उसकी जाति और गोत्र आदिका विचार नहीं किया जाता था। यही कारण है कि सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्तिके समय उसका गोत्र कौन है इसका विचार अध्यात्मदृष्टिसे तो किया ही नहीं गया है, लौकिक दृष्टि से भी नहीं किया गया है। जैनधर्ममें चाहे उच्चगोत्री हो और चाहे नीचगोत्री, आर्य म्लेच्छरूप तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्ररूप सब मनुष्योंके लिए धर्मका द्वार समान रूपसे खुला हुआ है। उच्चगोत्री तो रत्नत्रयका पात्र है ही। जो नीचगोत्री है वह भी रत्नत्रयका पात्र है / इतना अवश्य है कि जो नीचगोत्री मुनिधर्मको स्वीकार करता है उसका नीचगोत्र बदल कर नियमसे उच्चगोत्र हो जाता है / धर्मकी महिमा बहुत बड़ी है / कुल शुद्धि जैसे कल्पित आवरणोंके द्वारा उसके प्रवाहको रोकना असम्भव है। कुलमीमांसा कुलके साङ्गोपाङ्ग विचार करनेको प्रतिक्षा पिछले प्रकरणमें हमने गोत्रकी साङ्गोपाङ्ग मीमांसा की। वहाँ उसके पर्यायवाची नामोंका उल्लेख करते हुए यह भी बतलाया कि कुल, वंश और सन्तान ये लौकिक गोत्रके ही नामान्तर हैं / तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार लौकिक दृष्टि से गोत्र परम्परा विशेषको सूचित करता है उसी प्रकार कुल और वंश भी परम्परा विशेषको ही सूचित करते हैं, इसलिए लोकमें नहाँ किसीकी परम्परा विशेषको सूचित करनेके लिए इनमेंसे कोई एक शब्द आता है वहाँ उसे बदलकर उसके स्थानमें दूसरे शब्दका भी उपयोग किया