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________________ .. वर्ण, जाति और धर्म आदिकी उत्पत्तिके समय कौन गोत्र होता है ब्राह्मण गोत्र होता है या अन्य कोई ? किन्तु इसके विपरीत आगम साहित्यकी स्थिति यह है कि उसमें चार वर्णों और आर्य-म्लेच्छ भेदोंका उल्लेख तक नहीं हुआ है / क्या कारण है ? क्या मध्यकालके पूर्व किसी आचार्यको इसका ज्ञान ही नहीं था कि जिस प्रकार स्त्रीवेद आदि जीवके परिणाम हैं उस प्रकार ये ब्राह्मण आदि और आर्य-म्लेच्छ भेद भी जोवके परिणाम (पर्याय ) हैं / अर्थात् ये उच्च और नीचगोत्रके अवान्तर भेद हैं। यदि उन्हें इसका ज्ञान था तो गोत्रके अवान्तर भेदोंमें इनकी परिगणना क्यों नहीं की गई और सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्तिके समय इनका विचार क्यों नहीं किया गया ? इसका क्या कारण है ? यदि ये गोत्रके भेद न मान कर पञ्चेन्द्रिय जाति या मनुष्यगति नामकर्मके भेद माने जाते हैं और साथ ही यह भी माना जाता है कि गति और जातिके किये गये इस प्रकार अमुक भेदके साथ अमुक प्रकारके धर्मका अविनामाव सम्बन्ध है तब भी यह प्रश्न उठता है कि यदि ऐसी बात थी तो उसका आगममें उल्लेख क्यों नहीं हुआ? या तो यह मानिए कि ये ब्राह्मण आदि नाम आजीविकाके आधारसे कल्पित किये गये हैं, ये मनुष्योंके नामकर्म या गोत्रकर्मकृत भेद नहीं हैं। और यदि इन्हें मनुष्यों के अवान्तर भेद मानकर उनका नामकर्म या गोत्रकर्मके साथ सम्बन्ध स्थापित किया जाता है तो यह बतलाइए कि आगममें इन भेदोंका उस रूपसे उल्लेख क्यों नहीं किया गया ? स्थिति स्पष्ट है / आगम साहित्यके देखनेसे विदित होता है कि वास्तवमें ये ब्राह्मण आदि नाम मनुष्योंके अवान्तर भेद नहीं हैं। न तो ये मनुष्यगति नामकर्मके भेद हैं और न गोत्रकर्मके ही भेद हैं। यही कारण है कि आगममें न तो इनका उल्लेख ही हुआ है और न वहाँ इनका धर्माधर्मकी दृष्टिसे विचार ही किया गया है / यहाँ यह स्मरणीय है कि जिस प्रकार ये जीवके भेद नहीं हैं उसी प्रकार ये शरीरके भी भेद नहीं हैं। यही कारण है कि चरणानुयोगके मूल ग्रन्थ मूलाचार और रत्नकण्डश्रावकाचारमें भी इनके आधारसे विचार नहीं किया गया है। थोड़ा
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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