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________________ गोत्रमीमांसा मालूम पड़ता है कि उन्होंने लोकरूढिको देखकर स्थूलदृष्टिसे ही इसका कथन किया है / अन्यथा वे एक स्थान पर लोकाचारको मान्यता देकर उसके आधारसे गोत्रके दो भेद करके दूसरे स्थान पर उनका जीवके पर्यायरूपसे कभी भी समर्थन नहीं करते। यह कथन करनेकी शैली है / चरणानुयोगमें चारित्र और क्रियाओंका स्थूल दृष्टिसे कथन होना तो उचित है। किन्तु उसीको अन्तिम मानकर चलना उचित नहीं है। स्थूल दृष्टिसे यह भले कहिए कि जो जैनधर्मकी श्रद्धा करता है और जिसने उसकी दीक्षा ले ली है वह जैन है किन्तु जो आत्माकी स्वतन्त्रता स्वीकार कर स्वावलम्बनके मार्ग पर चल रहा है, प्रकटमें वह भले ही जैन सम्प्रदायमें दीक्षित न हुआ हो तो भी प्रसङ्ग आने पर उसे जैन माननेसे अस्वीकार मत करिए। धर्म सनातन सत्य है। उसे न तो किसी सम्प्रदायके साथ बाँधा ही जा सकता है और न सम्प्रदायवालोंकी मर्जी पर उसे छोड़ा ही जा सकता है। सर्वत्र विवेकसे काम लेनेकी आवश्यकता है। आगमका अभिप्राय जैनधर्मकी दोक्षाके समय गोत्रका विचार नहीं होता___ सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्तिके समय जीवका कौन परिणाम होता है, कौन योग होता है, कौन कषाय होती है, कौन उपयोग होता है, कौन लेश्या होती है और कौन वेद होता है इन सबका विचार किया गया है। यह इसलिए कि इनमेंसे जिस प्रकार के परिणाम आदिके सद्भावमें सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्ति नहीं होती उनका निषेध कर शेषका विधान किया जा सके। अनेक बार मेरे मनमें यह प्रश्न उठा कि ऐसे अवसर पर जिस प्रकार कौन परिणाम होता है इत्यादिका विचार किया गया है उस प्रकार गोत्रका विचार क्यों नहीं किया गया। प्रारम्भसे ही यदि धर्ममें ब्राह्मण आदि तीन वर्णवालोंकी प्रमुखता.रही है और वे ही उच्चगोत्री माने जाते रहे हैं तो और बातोंके साथ इसका भी विचार होना आवश्यक था कि सम्यग्यदर्शन
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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