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________________ गोत्रमीमांसा 126 यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह ये छह कर्म बतलाये गये हैं। “यथा अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा / दानं प्रतिग्रहश्चैव षटकर्माण्यग्रजन्मनः // 75 // अ० 10 महापुराणमें भी ये ही कर्म ब्राह्मणवर्णके बतलाये गये हैं। यथा मुखतोऽध्यापयन शास्त्र भरतः स्रक्ष्यति द्विजान् / अधीत्यध्यापने दानं प्रतीच्छेज्येति तस्क्रियाः॥२४६॥ पर्व 16 - इनमेंसे अध्यापन, याजन, और प्रतिग्रह ये तीन कर्म ब्राह्मण वर्णकी आजीविकाके साधन हैं। शेष तीन कर्म द्विजातियोंमें सर्वसाधारण माने गये हैं / अर्थात् ब्राह्मणके समान क्षत्रिय और वैश्यके मनुष्य भी इन कर्मों को करनेके अधिकारी हैं / इस तथ्यको मनुस्मृति इन शब्दोंमें स्वीकार करती है- . . षण्णां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका। .. याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः // 76 // पर्व 10 / . प्रयो धर्मा निवर्तन्ते ब्राह्मणात्क्षत्रियं प्रति / अध्यापनं याजनं च तृतीयश्च प्रतिग्रहः / / 77 // वैश्यं प्रति तथैवेते निवर्तेरनिति स्थितिः / न तौ प्रति हि तान्धर्मान्मनुराह प्रजापतिः // 7 // . इससे मालूम पड़ता है कि इस विषयमें महापुराणमें मनुस्मृतिका * अनुसरण किया गया है, अन्यथा कोई कारण नहीं था कि शूद्रको पूजा, दान और स्वाध्याय जैसे श्रावकोचित्त कर्तव्योंसे भी वञ्चित किया जाता / कहाँ तो मनुस्मृति धर्मको अपना बनाकर आचार्य जिनसेनका यह कहना कि षटकर्मोंका अधिकारी मात्र तीन वर्णका मनुष्य होता है और कहाँ आचार्य कुन्दकुन्दका यह कहना कि 'दान और पूजा ये श्रावकधर्ममें मुख्य हैं, उनके बिना कोई श्रावक नहीं हो सकता।' दोनों पर विचार
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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