________________ 130 वर्ण, जाति और धर्म . कीजिए और देखिये कि इनमेंसे कौन कथन ग्राह्य है / हम इस विषय पर और अधिक टीका-टिप्पणी नहीं करेंगे / वस्तुस्थिति क्या है यह दिखलाना मात्र हमारा प्रयोजन होनेसे यहाँ हमने इस विषयका तुलनाके साथ विस्तारपूर्वक निर्देश कर दिया है। ___ संक्षेपमें समग्र प्रकरण पर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि उच्चगोत्र, तीन वर्ण और आर्य षटकर्म ये एक प्रकारसे पर्यायवाची मान लिए गये हैं। और देवपूजा, दान, स्वाध्याय, संयम और तपरूप धर्मको तथा गोत्रकी आध्यात्मिकता समाप्त कर उन्हें वर्गों के समान सामाजिक बनानेका प्रयत्न किया गया है। आचार्य जिनसेनका यह उपक्रम केवल गृहस्थधर्म तक ही सीमित नहीं है। गृहस्थधर्मके बाद दीक्षाद्य क्रियांसे लेकर निर्वृत्ति तक जितनी भी क्रियायें हैं उन्हें भी उन्होंने यही रूप देनेका प्रयत्न किया है। उनके द्वारा उपदिष्ट इस समग्र प्रकरणको पढ़नेके बाद हमारा ध्यान मनुस्मृति पर जाता है। मनुस्मृतिमें भी कर्मके प्रवृत्तकर्म और निवृत्तकर्म ये दो भेद करके उनका अधिकारी मात्र द्विज माना गया है वहाँ कहा है सुखाभ्युदयिकं चैव नैःश्रेयसिकमेव च। प्रवृत्तं निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम् // 78, अ० 12 // आचार्य जिनसेनने अपने महापुराणमें वैदिक ब्राह्मणोंको भला बुरा चाहे जितना कहा हो। पर इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने जैनधर्मकी आध्यात्मिकताको गौण करके उसे तीन वर्णका सामाजिक धर्म या कुलधर्म बनानेका भरपूर प्रयत्न किया है। बहुत सम्भव है कि उन्हें इस कार्य में उनके गुरुका भी आशीर्वाद रहा है। एक भवमें गोत्र परिवर्तन.. जीवमें कर्मके निमित्तसे होनेवाली पर्याय कई प्रकारकी होती हैं / कुछ पर्याय एक समयवाली होती हैं / जैसे व्याघातसे उत्पन्न हुई एक समयवाली मा पर्याय। कुछ पर्याय अन्तर्मुहूर्तवाली होती हैं। जैसे व्याघात और मरणके