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________________ 128 वर्ण, जाति और धर्म यह गाथा अपनेमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट सूचित होता है कि कर्मभूमिकी महिलाओंको छोड़कर वहाँ उत्पन्न हुए सब प्रकारके मनुष्योंमें छहों संघननोंकी प्राप्ति सम्भव है / शूद्र इस नियमके अपवाद नहीं हो सकते, अतः काललब्धि प्राप्त होने पर शूद्र न केवल गृहस्थ धर्मके अधिकारी हैं / किन्तु वे मुनिधर्मको अंगीकार कर उसी भवसे मोक्षको भी प्राप्त हो सकते हैं। ___ आचार्य जिनसेनने आर्य षटकर्मोंका उपदेश केवल ब्राह्मणोंको ही क्यों दिया इसका एक दूसरा पहलू भी हो सकता है / महापुराणमें वे इस बातको स्पष्टरूपसे स्वीकार करते हैं कि भरतचक्रवर्तीने दिग्विजयके बाद प्रजामें योग्य व्यक्तियोंका आदर-सत्कार करनेके विचारसे प्रजाको आमन्त्रित किया और उनमें जो व्रती थे उनका आदर-सत्कार करके उनको ब्राह्मणवर्णमें स्थापित किया / अनन्तर कुलधर्मरूपसे उन्हें आर्यषटकर्मका उपदेश दिया। यह महापुराणके कथनका सार है। इसे यदि इस रूपमें लिया जाता है कि जो क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र गृहस्थधर्मको स्वीकार कर व्रती हो जाते हैं वे ब्राह्मण कहलाते हैं कमसे कम कुलधर्मके रूपमें उन्हें इज्या आदि षटकर्मका पालन तो अवश्य ही करना चाहिए / तब तो विचारकी स्थिति दूसरी हो जाती है / परन्तु आचार्य जिनसेन इस स्थितिका सर्वत्र एक रूपमें निर्वाह नहीं कर सके हैं / घूम फिर कर वे जन्मना वर्णव्यवस्था पर आ जाते हैं / वे स्पष्ट कहते हैं कि हमें ऐसा द्विजन्मा इष्ट है जो गर्भजन्म और क्रिया- मन्त्रजन्म इन दोनोंसे द्विज हो / वे कहते हैं तेषां स्यादुचितं लिङ्गं स्वयोग्यव्रतधारिणाम् / एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि // 171 // पर्व / जब कि शूद्र जैनधर्मको समग्ररूपसे धारण करनेका अधिकारी है / ऐसी अवस्थामें आचार्य जिनसेनने मात्र शूद्र वर्ण पर अनेक प्रतिबन्ध क्यों लगाये इस विषयको स्पष्टरूसे समझने के लिए हमारा ध्यान मुख्यतः मनुस्मृतिकी ओर जाता है / मनुस्मृतिमें ब्राह्मण वर्णके अध्यापन, अध्ययन,
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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