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________________ गोत्रमीमांसा 123 स्वीकार कर लेते हैं / कदाचित् आहारादिकी प्राप्ति नहीं होती है तो उसकी अपेक्षा किये बिना वनकी ओर मुड़ जाते हैं। आहारके लाभमें उनकी जो मनस्थिति होती है, उसके अलाभमें भी वही मनस्थिति बनी रहती है। जिसे समतातत्त्वका अभ्यास कहा जाता है वह इसीका नाम है। किन्तु इसके विपरीत नारकियों और तिर्यञ्चोंका जीवन स्वावलम्बनसे कोसों दूर है / नारकियोंकी चाह बहुत है, मिलता नहीं अणु बराबर भी। जीवनमें सर्वत्र विकलताका साम्राज्य छाया रहता है। तिर्यञ्चोंकी पराधीनताकी स्थिति तो स्पष्ट ही है। इस प्रकार उक्त जीवधारियोंके इस नैसर्गिक जीवन पर दृष्टिपात करनेसे यही विदित होता है कि जिनके जीवन में स्वावलम्बनकी ज्योति जगती रहती है वे उच्चगोत्री होते हैं और इनके विपरीत शेष नीचगोत्री / ( वर्णव्यवस्था जीवनका अङ्ग नहीं है, वह मानवकृत है। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार उसमें परिवर्तन भी होता है। वह सार्वत्रिक भी नहीं है, इसलिए इस आधारसे न तो स्वावलम्बन और परावलम्बनकी ही व्याख्या की जा सकती है और न उच्चगोत्र और नीचगोत्रकी व्यवस्था हो बनाई जा सकती है, क्योंकि ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होनेके बाद कोई मनुष्य परावलम्बनका श्राश्रय नहीं लेगा, न तो यह ही निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है और शूद्रकुलमें जन्म लेनेके बाद कोई मनुष्य स्वावलम्बी नहीं होगा, न यह हो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है / अतएव जैनपरम्परामें गोत्रको जिस रूपमें स्थान मिला है उसके अनुसार यही मानना उचित है कि गोत्रका सम्बन्ध वर्णव्यवस्थाके साथ न होकर प्राणीके जीवनके साथ है और उसकी व्याप्ति चारों गतियोंके जीवोंमें देखी जाती है। उच्चगोत्र, तीन वर्ण और षट्कर्म इस प्रकार गोत्रके व्यावहारिक अर्थके साथ उसकी उक्त व्याख्याओंमेंसे प्रकृतमें कौन व्याख्याएँ ग्राह्य हैं और कौन व्याख्याएँ ग्राह्य नहीं हैं इस बातकी संक्षेपमें मीमांसा की। अब देखना यह है कि पूर्वमें गोत्रकी जो
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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