________________ 122 ___ वर्ण, जाति और धर्म यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि उच्चगोत्र या नीचगोत्र जीवकी नोआगमभावरूप पर्याय है। पर उसे किसरूप माना जाय यही मुख्य प्रश्न है। ऐसा नियम है कि देवों और भोगभूमिके मनुष्योंमें उच्चगोत्रका उदय होता है, नारकियों और तिर्यञ्चोंमें नीचगोत्रका उदय होता है / तथा कर्मभूमिके मनुष्योंमें पृथक् पृथक् नीच या उच्चगोत्रका उदय होता है। गोत्रकर्मके विषयमें एक नियम तो यह है और दूसरा नियम है कि जो मनुष्य सकल संयमको धारण करते हैं उनके नियमसे नीचगोत्र बदल कर उच्चगोत्र हो जाता है / नीचगोत्र तो देशसंयमके निमित्तसे भी बदल जाता है पर वह सभीके बदल जाता होगा ऐसा नहीं प्रतीत होता, अन्यथा कर्मशास्त्र के अनुसार पाँचवें गुणस्थानमें नीचगोत्रका उदय नहीं बन सकता है / ये दो प्रकारकी व्यवस्थाएँ हैं जिनका ज्ञान हमें कर्मसाहित्यसे होता है इस पर बारीकीसे दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि जिनके जीवन में किसी न किसी रूपमें स्वावलम्बनकी मात्रा पाई जाती है वे उच्चगोत्री होते हैं और जिनके जीवन में परावलम्बनकी बहुलता होती है वे नीचगोत्री होते हैं. देवों, भोगभूमिके मनुष्यों और सकलसंयमी मनुष्यों के उच्चगोत्री होने तथा नारकियों और तिर्यञ्चोंके नीचगोत्री होनेका यही कारण है | इनके जीवनकी धाराका जो चित्र जैनसाहित्यमें उपस्थित किया गया है उसका बारीकीसे अध्ययन करने पर यह बात भलीभाँति.समझी जा सकती है, अतएव इसे हमारा कोरा तर्क नहीं मानना चाहिए / उदाहरणार्थ-देवोंको ही लीजिए / उनके जीवनकी जो भी आवश्यकताएं हैं उनके लिए उन्हें परमुखापेक्षी नहीं होना पड़ता। इच्छानुसार उनकी पूर्ति अनायास हो जाती है। भोगभूमिके मनुष्योंकी भी यही स्थिति है। यद्यपि महाव्रतोंका पालन करनेवाले मुनि आहारादिके लिए गृहस्थोंका अवलम्बन लेते हैं / परन्तु वे आहारादिके समय न तो दीनता स्वीकार करते हैं और न गृहस्थोंकी अधीनता ही स्वीकार करते हैं। अपने स्वावलम्बनका उत्कृष्ट रूपसे पालन करते हुए अपने अनुरूप आहारादिकी प्राप्ति होने पर उसे वे