________________ 124 वर्ण, जाति और धर्म आचार या सन्तान परक व्याख्याएँ दे आये हैं उनके प्रभावका उपयोग केवल सामाजिक क्षेत्र तक ही सीमित रहा है या धार्मिक क्षेत्रमें भी उनका प्रभाव पड़ा है ? प्रश्न मार्मिक है, अतएव आगे विस्तारके साथ इसका विचार किया जाता है। ' आचार दो प्रकारका है—वर्णसम्बन्धी या आजीविकासे सम्बन्ध रखनेवाला आचार और आत्मशुद्धिमें प्रयोजक आचार। वर्णसम्बन्धी आचार भारतवर्ष (भारतक्षेत्र नहीं) तक ही सीमित है, क्योंकि इसी क्षेत्रके मनुष्यों : में ब्राह्मणधर्मके प्रभाववश चार वर्ण और उनके अलग अलग आचारकी व्यवस्था देखी जाती है / किन्तु आत्मशुद्धिमें प्रयोजक आचार केवल भारतवर्ष तक ही सीमित नहीं है। किन्तु भारतवर्ष के बाहर तिर्यञ्चों तकमें भी वह पाया जाता है, इसलिए आत्मशुद्धिमें प्रयोजक आचार न तो वर्णव्यवस्थाके साथ जुड़ा हुआ है और न उच्च-नीच गोत्रके साथ ही। इतना अवश्य है कि आत्मशुद्धिमें प्रयोजक जो मुनिका आचार है उसकी व्याप्ति उच्चगोत्रके साथ अवश्य है। वहाँ अवश्य ही यह कहा जा सकता है कि जो भावमुनिके आचारका पालन करता है वह नियमसे उच्चगोत्री होता. है / फिर चाहे उसे उच्चगोत्रकी प्राप्ति भवके प्रथम समयमें हुई हो या संयमग्रहणके प्रथम समयमें, पर होगा बह नियमसे उच्चगोत्री ही / इस स्थितिके रहते हुए भी आचार्य जिनसेनने अपने महापुराणमें कुछ ऐसी परम्पराएँ कायम की हैं जिनका समर्थन उनके पूर्ववर्ती किसी भी प्रकारके जैन साहित्यसे नहीं होता / उदाहणार्थ वे अपने नये दीक्षित ब्राह्मणोंको भरत चक्रवतींके मुखसे उपदेश दिलाते हुए कहते हैं इज्यां वातां च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः। श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् // 24 // पर्व 38 अर्थात् भरतने उन द्विजोंको श्रुतके उपासकसूत्र के आधारसे इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तपका उपदेश दिया / . '