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________________ 116 वर्ण, जाति और धर्म मनुष्योंका वारण करनेके लिए जो आर्य इस प्रकारके ज्ञान और बचन व्यवहार में निमित्त हैं' यह विशेषण दिया है। | धवला प्रकृति अनुयोगद्वारमें वीरसेनस्वामीने उच्चगोत्र और नीचगोत्रका कहाँ व्यापार होता है इसकी मीमांसा करते हुए तीन वर्णवाले मनुष्योंमें उच्चगोत्र तथा शूद्र और म्लेच्छ मनुष्योंमें नीचगोत्र होता है. यह स्वीकार किया है। उसे ध्यानमें रखकर ही हमने गोत्रके उक्त लक्षणके विशेषणोंको सार्थकता बतलाई है। ___ यहाँ पर दीक्षा योग्य साधु आचारसे वीरसेन स्वामीको क्या इष्ट रहा है इसका स्पष्ट ज्ञान धवला टीकासे नहीं होता। किन्तु उनके शिष्य आचार्य जिनसेनने अपने महापुराणमें भरेत चक्रवर्ती के मुखसे दीक्षा योग्य कुलकी व्याख्या इन शब्दोंमें कराई है अदीक्षाहे कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः / एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारो नाभिसम्मतः // 170 // पर्व 40 / - अर्थात् जो दीक्षा योग्य कुलमें नहीं उत्पन्न हुए हैं तथा जो विद्या और शिल्प कर्म द्वारा अपनी आजीविका करते हैं वे उपन्यन आदि संस्कारके योग्य नहीं माने गये हैं। प्रकृतमें यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यहाँ पर दीक्षा शब्दसे आचार्य जिनसेनको केवल उपनयन संस्कार ही इष्ट नहीं है। किन्तु इससे वे श्रावक और मुनि दीक्षा भी लेते हैं। महापुराणके अनुसार जिस समय भरत चक्रवर्तीने ब्राह्मण वर्णको स्थापना . कर धार्मिक क्षेत्रमें दीक्षाके योग्य तीन वर्णके मनुष्य ही हैं ऐसी व्यवस्था दी थी उस समय समवसरण सभामें आदिनाथ जिन विद्यमान थे इस तथ्यको स्वयं प्राचार्य जिनसेनने स्वीकार किया है / यहाँ यह तो समझमें आता है कि ब्राह्मण वर्ण सामाजिक व्यवस्थाका अङ्ग है, इसलिए उसकी स्थापना भरतचक्रवर्तीके द्वारा कराई जाना कदाचित् न्यायसङ्गत कही जा सकती है पर धर्मतीर्थके कर्ता आदिनाथ जिनके रहते हुए भरत चक्रवर्ती यह व्यवस्था
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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