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________________ गोत्रमीमांसा 115 मनुष्योंकी सन्तानको उच्चगोत्र कहते हैं और उससे भिन्न मनुष्योंकी सन्तानको नीचगोत्र कहते हैं। पद्मपुराणमें नीचगोत्रकी की गई व्याख्यासे भी यही ध्वनि निकलती है। तथा धवलाके प्रकृति अनुयोगद्वारमें की गई व्याख्यासे भी इसकी पुष्टि होती है। मात्र गोम्मटसार कर्मकाण्डमें जो व्याख्या की गई है उसमें आर्य और अनार्य इनमेंसे किसी भी शब्दका उल्लेख नहीं हुआ है। इतना अवश्य है कि इस व्याख्याकी शब्द योजनासे ऐसा लगता है कि यह व्याख्या भी पूर्वोक्त व्याख्याओंकी ही पूरक है, अन्यथा उसमें परम्परासे या वंशानुक्रमसे आये हुए आचारको मुख्यता न दी जाती। यहाँ पर यद्यपि हमने पद्मपुराणकी व्याख्याका वही तात्पर्य मान लिया है जो धवलाके प्रकृति अनुयोगद्वारकी व्याख्यामें स्पष्टरूपसे परिलक्षित होता है। किन्तु पद्मपुराणकी व्याख्यामें यह सम्भव है कि वहाँ 'अनार्य' शब्दका अर्थ म्लेछ न लेकरः 'अयोग्य' लिया गया हो / जो कुछ भी हो, प्रकृतमें) उसकी विशेष मीमांसा प्रयोजनीय नहीं है। यहाँ तो हमें धवला प्रकृति अनुयोगद्वारकी व्याख्याके आधारसे ही विचार करना है, क्योंकि आचारपरक अन्य सब व्याख्याएँ इसके अन्तर्गत आ जाती हैं। धवला प्रकृति अनुयोगद्वारमें वह व्याख्या इन शब्दोंमें की गई है. जिनका दीक्षा योग्य साधु आचार है, साधु आचारवालोंके साथ जिन्होंने अपना सम्बन्ध स्थापित कर लिया है.तथा जो 'आर्य' इस प्रकारके ज्ञान और वचन व्यवहार में निमित्त हैं उन पुरुषोंकी परम्पराको उच्चगोत्र कहते हैं और इनसे भिन्न पुरुषोंकी परम्पराको नीचगोत्र कहते हैं।' ... यहाँ पर तीन वर्णवालोंके सिवा अन्यका वारण करने के लिए 'जिनका दीक्षा योग्य साधु आचार है' यह विशेषण दिया है। जो अन्य मनुष्य तीन वर्णके आर्यों के साथ वैवाहिक आदि सामाजिक सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं उन्हें स्वीकार करने के लिए 'साधु आचारवालोंके साथ जिन्होंने अपना सम्बन्ध स्थापित कर लिया है' यह विशेषण दिया है। तथा शेष
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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