________________ गोत्रमीमांसा 117 दें कि तीन वर्णके मनुष्य श्रावक और मुनिदीक्षाके योग्य हैं, शूद्रवर्णके मनुष्य नहीं यह न्यायसङ्गत प्रतीत नहीं होता। इसे हम भरतचक्रवर्तीका धर्ममें हस्तक्षेप तो नहीं कहना चाहते, पर इतना अवश्य ही कह सकते हैं कि आचार्य जिनसेनने भरतचक्रवर्ती के मुखसे यह बात कहलाकर धार्मिक परम्पराको मनुस्मतिके समान सामाजिक व्यवस्थाका अङ्ग बनानेका प्रयत्न किया है / मनुस्मृति वर्णाश्रम धर्मका प्रतिपादन करनेवाला मुख्य ग्रन्थ है। उससे भी शूद्र उपनयन आदि संस्कारके योग्य नहीं हैं इसका स्पष्टतः समर्थन होता है। वहाँ कहा है न दे पातकं किञ्चिन्न च संस्कारमर्हति / नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति न धर्मात्प्रतिषेधनम् ॥१२६।।अ० 10 शूद्र यदि अभक्ष्य भक्षण करता है तो इसमें कोई दोष नहीं है। वह उपनयन आदि संस्कारके योग्य नहीं है तथा उसका धर्ममें कोई अधिकार भी नहीं है। परन्तु वह अपने योग्य धर्मका यदि पालन करता है तो इसका निषेध भी नहीं है। ___ मनुस्मृतिके इस वचनको पढ़कर यह दृढ़ धारणा होती है कि आचार्य जिनसेनने उक्त व्यवस्थाको स्वीकार करनेके लिए ही उसे भरत चक्रवर्तीके मुखसे कहलवाया है / स्पष्ट है कि यह व्यवस्था मोक्षमार्गका अंङ्ग नहीं है और न मोक्षमार्गमें इसे स्वीकार ही किया जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धवला प्रकृति अनुयोग द्वारमें उच्चगोत्रके लक्षणके प्रसंगसे आचार्य वीरसेनने जो 'जिनका दीक्षाके योग्य साधु आचार है। यह विशेषण दिया है वह तीन वर्णवालोंके सिवा शेष मनुष्योंको दीक्षाके अयोग्य ठहराने के लिए ही दिया है / उससे उच्चगोत्रके आध्यात्मिक स्वरूप पर कोई विशेष प्रकाश पड़ता हो ऐसी बात नहीं है / . यह तो प्रथम विशेषणकी स्थिति है। अब दूसरे विशेषणको लीजिए / वह है-'जिन्होंने साधु आचारवालोंके साथ वैवाहिक आदि सामाजिक