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________________ 108 वर्ण, जाति और धर्म जन्म लेता है ऐसा मानना भी वे ठीक नहीं समझते। उनके मतसे न तो उच्चगोत्रके उदयसे इक्ष्वाकु आदि कुलोंका निर्माण होता है और न ही आदेयता, यश और सौभाग्यकी प्राप्ति ही इसके निमित्तसे होती है। उनके मतसे ये सब कार्य तो उच्चगोत्रके हैं नहीं, इसलिए इनसे विपरीत कार्य नीचगोत्रके भी नहीं हो सकते यह सुतरां सिद्ध है। ऐसी अवस्थामें इन गोत्रोंका कार्य क्या है यह प्रश्न विचारणीय है। वीरसेनस्वामीने यद्यपि वहाँपर इस प्रश्नका समाधान करनेका प्रयत्न किया है किन्तु उसे . समस्याका समुचित हल कहना इसलिए ठीक न होगा, क्योंकि उस द्वारा अनेक नई धारणाओंकी पुष्टि की गई है यह बात इम आगे चलकर स्वयं बतलानेवाले हैं। स्पष्ट है कि गोत्रको इन विविध व्याख्याओंके रहते हुए हमें उसका विचार कर्मसाहित्यकी मौलिकताको ध्यानमें रखकर करना चाहिए और देखना चाहिए कि इनमेंसे कौन व्याख्याएँ उसके अनुरूप ठहरती हैं। कर्मसाहित्यके अनुसार गोत्रकी व्याख्या- यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि गोत्र जीवविपाकी कर्म है, इसलिए जिस प्रकार अन्य जीवविपाकी कर्मोंका उदय होने पर जीवकी विविध प्रकारकी पर्यायोंका निर्माण होता है उसी प्रकार गोत्रकर्मका उदय होने पर भी जीवकी ही अपनी पर्यायका निर्माण होता है। तात्पर्य यह है कि यदि उच्चगोत्रका उदय होता है तो जीवकी उच्च संज्ञावाली नोआगमभावरूप पर्यायका निर्माण होता है और नीचगोत्रका उदय होता है तो जीवको नीचसंज्ञावाली नोआगमभावरूप पर्यायका निर्माण होता है / यह तो सुविदित है कि वेदनोकघायके समान गोत्रकर्मका उदय शरीर ग्रहणके प्रथम समयसे प्रारम्भ न होकर भवग्रहणके प्रथम समयसे प्रारम्भ होता है, इसलिए जिस प्रकार वेदरूप स्त्रीपर्याय, पुरुषपर्याय और नपुंसकपर्यायका सम्बन्ध शरीरराश्रित बाह्य स्त्रीचिह्न, पुरुषचिह्न और नपुंसक चिह्नोंके साथ
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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