________________ गोत्रमीमांसा 106 नहीं है। अर्थात् यदि कोई द्रव्यसे स्त्री, पुरुष या नपुंसक है तो उसे भावसे भी.स्त्री, पुरुष या नपुंसक होना ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है उसी प्रकार गोत्रकर्मके उदयसे हुई जीवकी उच्च और नीच पर्यायका सम्बन्ध शरीरके आश्रयसे कल्पित किये गये कुल, वंश या जातिके साथ नहीं है / अर्थात् यदि कोई लोकमें उच्चकुली, उच्चवंशी या उच्चजातिका माना जाता है तो उसे पर्यायरूपमें उच्चगोत्री होना ही चाहिए या कोई लोकमें नीचकुली, नीचवंशी और नीचजातिका माना जाता है तो उसे पर्यायरूपमें नीचगोत्री होना ही चाहिए. ऐसा कोई नियम नहीं है / कर्मसाहित्यमें ऐसे अनेक स्थल आये हैं जहाँ पर द्रव्यका भावके साथ वैषम्य बतलाया गया हैं। इसके लिए वेदका उदाहरण तो हम पहले ही दे आये हैं। दूसरा उदाहरण सूक्ष्म और बादरका है / यह जीव सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे सूक्ष्म और बादर नामकर्मके उदयसे बादर होता है। किन्तु शरीर रचनाके साथ इन कर्मोंके उदयका सम्बन्ध न होनेसे जिस प्रकार क्वचित् बादर जीवोंको शरीर रचना सूक्ष्म जीवोंकी शरीर रचनाको अपेक्षा कई बातोंमें सूक्ष्म देखी जाती है और सूक्ष्म जीवोंकी शरीर रचना बादर जीवोंकी शरीर रचनाकी अपेक्षा कई बातोंमें स्थूल देखी जाती है उसी प्रकार लौकिक कुलादिके साथ उच्च और नीचगोत्रकर्मके उदयका सम्बन्ध न होनेसे जो लोकमें उच्चकुलवाले माने जाते हैं उनमें भी बहुतसे मनुष्य भावसे नोचगोत्री होते हैं और जो लोकमें नीचकुलवाले माने जाते हैं उनमें भी बहुतसे मनुष्य भावसे उच्चगोत्री होते हैं / / कार्मिक ग्रन्थों में यह तो बतलाया है कि सब नारकी और सब तिर्यञ्च नीचगोत्री होते हैं तथा सब देव और भोगभूमिज मनुष्य उच्चगोत्री होते हैं। पर वहाँ पर कर्मभूमिज गर्भज मनुष्योंमें ऐसा कुछ भी नहीं बतलाया कि आर्यखण्डके सब मनुष्य उच्चगोत्री होते हैं और म्लेच्छखण्डके सब मनुष्य नीचगोत्री होते हैं / या आर्यों में तीन वर्णवाले सब मनुष्य उच्चगोत्री होते हैं और शूद्र वर्णवाले सब मनुष्य नीचगोत्री होते हैं। वास्तवमै ये लौकिक कुल, वंश, जाति और वर्ण किसी कर्मके