SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10. गोत्रमीमांसा 4. उच्चगोत्र और नीचगोत्र ये जीवको पर्याय हैं। तात्पर्य यह है कि जोक्की उच्च पर्यायको उच्चगोत्र और नीच पर्यायको नीचगोत्र कहते हैं। 5. जिस कर्मके उदयसे उच्चगोत्र होता है वह उच्चगोत्र है। गोत्र, कुल, वंश और सन्तान ये एकार्थवाची नाम हैं / तथा जिस कर्मके उदयसे नीचगोत्र होता है वह नीचगोत्र है / 6. जो जीवको उच्च और नीच बनाता है या जीवके उच्च और नीचपनेका ज्ञान कराता है उसे गोत्र कहते हैं / 7. जिनका दीक्षा योग्य साधु आचार है, साधु आचारवालोंके साथ जिन्होंने अपना सम्बन्ध स्थापित किया है तथा जो 'आर्य' इस प्रकारके शान और वचन व्यवहार में निमित्त हैं उन पुरुषोंकी परम्पराको उच्चगोत्र कहते हैं और इनसे विपरीत पुरुषोंकी सन्तानको नीचगोत्र कहते हैं। 8. जिससे उच्चकुलका निर्माण होता है उसे उच्चगोत्र कहते हैं और जिससे नीचकुलका निर्माण होता है उसे नीचगोत्र कहते हैं। .. 6. जीवके सन्तानकासे आये हुए. आचरणकी गोत्र संज्ञा है / उच्च आचरणका नाम उच्चारोत्र है और नीच आचरणका नाम नीचगोत्र है। ____ सब मिलाकर ये नौ व्याख्याएँ हैं। इनमें कुछ व्याख्याएँ जीक्की पर्यायपरक हैं, कुछ व्याख्याएँ आचारपरक हैं और कुछ व्याख्याएँ कुल, वंश या सन्तानपरक हैं। दो व्याख्याएँ ऐसी भी हैं जिनमें आचार और सन्तान इन दोनोंमेंसे किसी एकको विशेषण और दूसरेको विशेष्य बनाकर उनका परस्पर सम्बन्ध स्थापित किया गया है। इसमें सन्देह नहीं कि गोत्रकी व्याख्याके विषयमें व्याख्याकारों के सामने एक प्रकार की उलझन रही है / षटखण्डागम प्रकृतिअनुयोगद्वारमें 136 वे सूत्रकी व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामीने इस उलझनको स्पष्ट शब्दोंमें व्यक्त किया है / वे न तो राज्यादि सम्पत्तिकी प्राप्ति उच्चगोत्रका फल मानते हैं और न रत्नत्रयकी प्राप्ति ही इसका फल मानते हैं। उच्चगोत्रके उदयसे जीव सम्पन्न कुलमें
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy