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________________ गोत्रमीमांसा 101 कर लिया है इतने मात्रसे उसे आगमानुमोदित जैनधर्मके अङ्गरूपसे स्वीकार कर उसे उसी रूपमें चलते रहने देना उचित नहीं प्रतीत होता / गोत्रमीमांसा - अब तक हमने धर्मका स्वरूप और उसके अवान्तर भेदोंके साथ प्रत्येक गतिमें विशेषतः मनुष्यगतिमें कहाँ किस प्रमाणमें धर्मकी प्राप्ति होती है इसका विस्तारके साथ विचार किया / आगे गोत्रके आधारसे उसका विचार करना है। उसमें भी सर्व प्रथम यह देखना है कि लोकमें और आगममें उसे किस रूपमें स्वीकार किया गया है तथा उनका परस्परमें कोई सम्बन्ध है या उनकी मान्यताका आधार ही पृथक्-पृथक् है / गोत्रशब्दको व्याख्या और लोकमें उसके प्रचलनका कारण-- ___ भारतीय जनजीवनमें गोत्रका महत्त्वपूर्ण स्थान है। गोत्रशब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-गूयते शब्द्यते इति गोत्रम्--जो कहा जाय / लोकमें गोत्र एक प्रकारका नाम है जो भारतीय समाजमें कारण विशेषसे रूढ़ होकर परम्परासे चला आ रहा है। इससे किसी व्यक्ति या समुदाय विशेषके आंशिक इतिहासकी छानबीन करनेमें सहायता मिलती है / यह उस समयकी देन है जब मानव समुदाय अनेक भागोंमें विभक्त होने लगा था और उसे अपने पूर्वजों और सम्बन्धियोंका ज्ञान करनेके लिए संकेतकी आवश्यकता प्रतीत होने लगी थी। क्रमशः जैसे-जैसे मानव-समाज अनेक भागोंमें विभक्त होता गया वैसे-वैसे इस नामके प्रति मनुष्योंका मोह भी बढ़ता गया। विवाहसम्बन्ध और सामाजिक रीति-रिवाजोंमें तो इसका विचार किया ही जाने लगा, धार्मिक क्षेत्रमें भी इसने स्थान प्राप्त कर लिया। इसे किसी न किसी रूपमें सभी भारतीय परम्पराओंने स्वीकार किया है। उत्तर काल में भारतवर्ष में वर्णाश्रमधर्मका प्राबल्य होने पर जैन
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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