________________ 100 वर्ग, जाति और धर्म ही ध्यानमें रखना चाहिए कि आचार्य जिनसेन कर्मभूमिज म्लेच्छोंको भी अकर्मभूमिज ही कहते हैं। आर्य और म्लेच्छ भेदोंकी कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज मनुष्यों के साथ जिस रूपमें भी सङ्गति बिठलाई जाय उसीको ध्यानमें रखकर इन भेदोंमें धर्माधर्मका विचार कर लेना चाहिए / इतना अवश्य ही ध्यानमें रहे कि आचार्य जिनसेनका वह कथन प्रकृतमें ग्राह्य नहीं हो सकता जिसके अनुसार उन्होंने म्लेच्छ खण्डोंमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्तिका सर्वथा निषेध किया है / हाँ यदि उन्होंने यह कथन वहाँ धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति न्यून है इस अभिप्रायसे किया हो तो बात दूसरी है। इस प्रकार आगमसाहित्यके आधारसे जो निष्कर्ष सामने आते हैं उन्हें इन शब्दोंमें व्यक्त किया जा सकता है-- १-पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए जितने भी आर्य और म्लेच्छ मनुष्य हैं उनमें सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमरूप पूर्ण धर्मको प्राप्ति सम्भव है। द्रव्य स्त्रियाँ और द्रव्य नपुंसक इसके अपवाद हैं। विशेष खुलासा पहले कर ही आये हैं। . २-तीस भोगभूमियों और अन्तद्वीपों उत्पन्न हुए जितने भी आर्य और म्लेच्छ मनुष्य हैं उनमें मात्र सम्यक्त्वधर्मकी प्राप्ति सम्भव है। ३–मनुष्योंके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये भेद आगम साहित्य और प्राचीन जैन साहित्यमें नहीं उपलब्ध होते / यहाँ तक कि मूलाचार, भगवतीआराधना, रलकरण्डश्रावकाचार जैसे चरणानुयोगके ग्रन्थोंमें तथा सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक जैसे सर्वविषयगर्भ टीका ग्रन्थों में भी इन भेदोंका उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसी अवस्थामें कौन वर्णका मनुष्य कितने धर्मको धारण कर सकता है इसकी चरचा तो दूर ही है। इस परसे यही निष्कर्ष निकलता है कि वर्णके आधारसे धर्माधर्मके विचारकी पद्धति बहुत ही अर्वाचीन है। जो आगमसम्मत नहीं है / स्पष्टं है कि परिस्थितिवश वैदिकधर्मके प्रभाववश इसे जैनसाहित्यमें स्थान दिया गया है / किन्तु उत्तरकालीन कतिपय आचार्यों और विद्वानोंने उसे स्वीकार