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________________ 102. वर्ण, जाति और धर्म साहित्यमें भी गोत्रकी व्याख्या वंशपरम्पराके आधार पर की जाने लगी, . और इसका सम्बन्ध वर्गों के साथ स्थापित किया गया। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये उच्चगोत्री माने जाने लगे और तथाकथित शूद्र तथा म्लेच्छ नीचगोत्री करार दिये गये। सुकुल और दुप्कुलकी व्याख्या भी इसी आधारसे की जाने लगी। ब्राह्मण परम्परामें जिसने अपने उत्तराधिकारीको सृष्टि कर ली हो वह सन्यास लेनेका अधिकारी माना गया है। पुत्रके अभावमें दत्तक पुत्रका विधान इसी परम्पराको दृढ़ मूल बनाये रखनेका एक साधन है / जो योग्य सन्तानको जन्म दिये बिना कौटुम्बिक जीवनसे विरत हो जाता है उसकी गति नहीं होती। धीरे-धीरे जैन परम्परामें भी यह प्रथा रूढ़ होने लगी. और यहाँ भी इस आधार पर वे सब तत्व स्वीकार कर लिये गये जो ब्राह्मण परम्पराकी देन हैं। कहनेको तो भारतवर्ष धर्मप्रधान देश कहा जाता है और एक हद तक ऐसा कहना उचित भी है। किन्तु कुछ गहराईमें जाने पर ऐसा मालूम पड़ता है कि यह प्रचारका एक साधन भी है। हम इसके नाम पर उन समस्त तत्त्वोंका प्रचार करते हैं. जो वर्गप्रभुत्वके पोषक हैं। गोत्रसे इस वर्गप्रभुत्वको स्थायी बनाये रखनेमें बड़ी सहायता मिली है। . __यह तो सब कोई जानते हैं कि इस देशमें ही गोत्रका विचार किया जाता है। अन्य देशोंके लोग इसका नाम भी नहीं जानते / वहाँ रंगभेदके उदाहरण तो दृष्टिगोचर होते हैं पर इस आधारसे यहाँके समान जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें वहाँ ऊँच-नीचका भेद नहीं दिखलाई देता। ब्राह्मण ऋषियोंने देखा कि जबतक व्यक्ति या समाजके जीवनमें जात्यभिमान या वंशाभिमानकी सृष्टि नहीं की जायगी तबतक वर्गप्रभुत्वकी कल्पना साकार रूप नहीं ले सकती, इसलिए उन्होंने इसके आधारभूत 'अपुत्रस्यगति नास्ति' इस सिद्धान्तकी घोषणा की और इसे व्यावहारिक रूप देनेके लिए गोत्रकी प्रथा चलाई। प्रारम्भमें ऐसे आठ ऋषि हुए हैं जो गोत्रकर्ता
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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