________________ निबन्धसंग्रहाख्यव्याख्यासंवलिता [चिकित्सास्थान कुलत्ि मसूरिकायामित्यादि / आदिशब्देनोद्वर्तनघृतादि // 31 // - भिस्वा वा सेवनीं मुक्त्वा सद्यःक्षतवदाचरेत् // जतुमणिं समुत्कृत्य मषकं तिलकालकम् // 32 // / सनिरुद्धगुदं रोगं वल्मीकं वह्निरोहिणीम् // 46 // क्षारेण प्रदहेद्युक्त्या वह्निना वा शनैः शनैः // प्रत्याख्याय यथायोगं चिकित्सितमथाचरेत् // ___ जतुमणिमित्यादि / क्षारेण क्षारविषयेषु, अग्निना अक्षार विसर्पोक्तेन विधिना साधयेदग्निरोहिणीम् // 47 // कृत्येषु // 32 // सन्निरुद्धगुदे योज्या निरुद्धप्रकशक्रिया // न्यच्छे व्यङ्गे सिरामोक्षोनीलिकायां च शस्यते // 33 // निरुद्धेत्यादि / दारवीं काष्ठमयीम् / जतुकृतां लाक्षामयीम् / यथान्यायं यथाभ्यासं लालाट्यादिसिराव्यधः॥ शिशुमारः पादी जलचरः खनामख्यातः / चक्रतैलं यन्त्रपीघृष्टवा दिह्यात्त्वचं पिष्टवा क्षीरिणां क्षीरसंयुताम् // 34 // डितं तैलं; सेवनी भित्त्वा मुक्त्वा वा शस्त्रेण मूत्रस्रोतःसङ्कोचबलातिबलयष्ट्याह्वरजनीर्वा प्रलेपनम् // कारणं चर्मावदारयेत् ; तस्यापि द्वारस्याविपाके मणिद्वारमर्थव पयस्यागुरुकालीयलेपनं वा सगैरिकम् // 35 // | दारयेत् // 43-47 // -- क्षौद्राज्ययुक्तया लिम्पेइंष्ट्रया शूकरस्य च // शस्त्रेणोत्कृत्य वल्मीकं क्षाराग्निभ्यांप्रसाधयेत्॥४८॥ कपित्थराजादनयोः कल्कं वा हितमुच्यते // 36 // विधानेनार्बुदोक्तेन शोधयित्वा च रोपयेत् // न्यच्छे इत्यादि / घृष्टा समुद्रफेनादिना / क्षीरिणो वटादयो | वल्मीकं तु भवेद्यस्य नातिवृद्धममर्मजम् // 49 // वृक्षाः पञ्च, तेषां त्वचं पिष्ट्वा / पयस्या अर्कपुष्पी / कालीयं तत्र संशोधनं कृत्वा शोणितं मोक्षयेद्भिषक् // कृष्णचन्दनम् // 33-36 // डूच्या लवणेन च // 50 // यौवने पिडकावेष विशेषाच्छर्दनं हितम् // आरेवतस्य मूलैश्च दन्तीमूलैस्तथैव च // लेपनं च वचारोधसैन्धवैः सर्षपान्वितैः // 37 // श्यामामूलैः सपललैः शक्तुमित्रैः प्रलेपयेत् // 51 // कुस्तुम्बुरुवचालोध्रकुष्ठैर्वा लेपनं हितम् // सुस्निग्धैश्च सुखोष्णैश्च भिषक तमुपनाहयेत् // __यौवने इत्यादि / एष अनन्तरोक्तः // 37 // पक्कं वा तद्विजानीयाद्तीः सर्वा यथाक्रमम् // 52 // पद्मिनीकण्टके रोगे छर्दयेन्निम्बवारिणा // 38 // | अभिज्ञाय ततश्छित्त्वा प्रदहेन्मतिमान् भिषक् // संशोध्य दुष्टमांसानि क्षारेण प्रतिसारयेत् // 53 // तेनैव सिद्धं सक्षौद्रं सर्पिःपानं प्रदापयेत् // वणं विशुद्धं विज्ञाय रोपयेन्मतिमान् भिषक // निम्बारग्वधयोः कल्को हित उत्सादने भवेत्॥३९॥ सुमना ग्रन्थयश्चैव भल्लातकमनःशिले // 54 // पद्मिनीत्यादि / निम्बारग्वधयोः कल्कः कषाय उत्सादने कालानसारी सक्ष्मैला चन्दनागरुणी तथा // उद्वर्तने हितो भवेदित्यर्थः। कल्के कषायशब्दो वर्तते, “पञ्चविधं एतैः सिद्धं निम्बतैलं वल्मीके रोपणं हितम् // 55 // कषायकल्पनम्" (च. सू. अ. 4) इति वचनात् // 38 // 39 // पाणिपादोपरिष्टांत्तु छिद्रैर्बहुभिरावृतम् // परिवत्ति घृताभ्यक्तां सुखिन्नामुपनाहयेत् // वल्मीकं यत् सशोफ स्याद्वज्यं तत्तु विजानता // 56 // ततोऽभ्यज्य शनैश्चर्म चानयेत्पीडयेन्मणिम् // 40 // असाध्येष्वपि वल्मीकाग्निरोहिणीप्रभृतिषु चिकित्सितं कार्य, प्रविष्टे च मणौ चर्म खेदयेदुपनाहनैः। “यावदुच्छसिति प्राणी तावत् कार्या प्रतिक्रिया / कदाऽपि त्रिरात्रं पञ्चरात्रं वा वातघ्नैः साल्वणादिभिः॥४१॥ दैवयोगेन दृष्टारिष्टोऽपि जीवति' इत्युक्तत्वात् / वल्मीकमिदद्याद्वातहरान् बस्तीन् स्निग्धान्यन्नानि भोजयेत॥ त्यादि / तत्र संशोधनं कृत्वा 'औषधेन' इति शेषः / आरेवतः वपाटिकां जयेदेवं यथादोषं चिकित्सकः॥४२॥ किरमालकः / श्यामा त्रिवृद्विशेषः / पललं तिलपिष्टिः। उपपरिवृत्तिमित्यादि / उपनाहयेत् बध्नीयात् / अभ्यज्य नाहः पाचनम् / कालानुसारी कृष्णसारिवा // 48-56 // सर्पिषा / हीनमध्यमोत्तमदोषबलापेक्षया एकरात्रत्रिपञ्चरात्र धाव्याः स्तन्यं शोधयित्वा बाले साध्याऽहिपूतना // विकल्पः // 40-42 // पटोलपत्रत्रिफलारसाञ्जनविपाचितम् // 57 // निरुद्धप्रकशे नाडी लौहीमुभयतोमुखीम् // पीतं घृतं नाशयति कृच्छ्रामप्यहिपूतनाम् // दारवीं वा जतुकृतां घृताभ्यक्तां प्रवेशयेत् // 43 // | त्रिफलाकोलखदिरकषायं व्रणरोपणम् // 58 // परिषेके वसामजशिशुमारवराहयोः॥ कासीसरोचनातुत्थहरितालरसाजनैः॥ चक्रतैलं तथा योज्यं वातघ्नद्रव्यसंयुतम् // 44 // लेपोऽम्लपिष्टो बदरीत्वग्वा सैन्धवसंयुता // 59 // ज्यहाज्यहात् स्थूलतरां सम्यङ्गाडी प्रवेशयेत् // कपालतुत्थजं चूर्ण चूर्णकाले प्रयोजयेत् // स्रोतो विवर्धयेदेवं स्निग्धमन्नं च भोजयेत् // 45 // चिकित्सेन्मुष्ककच्छू चाप्यहिपूतनपामवत् // 6 // १'चर्मकीलं जतुमणिं मशकं तिलकालकम् / उद्धृत्य शस्त्रेण दहेत् क्षारामिभ्यामशेषतः // इति पा०। 'मा विजानीयात्' इति पा०।