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________________ 236 निबन्धसंग्रहाख्यव्याख्यासंवलिता [ सूत्रस्थानं प्रसिद्धौः; मध्वालुकं रोमशं मधुरास्वादमेव; हस्त्यालुकं मह-। तदन्यकन्दानाह-कुमुदेत्यादि / कुमुदं श्वेतोत्पलम् , काष्ठालुकमित्येके काष्टालुकशङ्खालुकरक्तालकोत्पलकन्दाः खना- उत्पलं नीलोत्पलम् / तेषां सामान्यगुणमाह-मारुतकोपना मप्रसिद्धाः / प्रभृतिग्रहणात् केलूटमुजातकादयः // 298 // इत्यादि / वराहकन्द इति वराहकन्दो 'बकालुक' इति प्रसिद्धः, अन्ये तु वाराही' इति पठन्ति, वाराही गृष्टिकोच्यते // 308 // रक्तपित्तहराण्याहुः शीतानि मधुराणि च // गुरूणि बहुशुक्राणि स्तन्यवृद्धिकराणि च // 299 // तालनारिकेलखर्जूरप्रभृतीनां मस्तकमजानः॥३१०॥ तेषां सामान्यगुणमाह-रक्तपित्तेत्यादि // 299 // मूल प्रसङ्गेनाग्रगुणमपि केषांचिदाह-तालेत्यादि / ताला. मधुरो बृंहणो वृष्यः शीतः स्वोऽतिमूत्रलः॥ दयः प्रसिद्धाः / मस्तकमजानस्तालादिवृक्षाग्रमज्जानः // 310 // विदारीकन्दो बल्यश्च पित्तवातहरश्च सः॥ 300 // स्वादुपाकरसानाहू रक्तपित्तहरांस्तथा // वातपित्तहरी वृष्या स्वादुतिक्ता शतावरी // शुक्रलाननिल नांश्च कफवृद्धिकरानपि // 311 // महती चैव हृद्या च मेधाग्निबलवर्धिनी // 301 // __सामान्यगुणमाह-खादुपाकेल्यादि // 311 // ग्रहण्य विकारघ्नी वृष्या शीता रसायनी। बालं ह्यनातवं जीर्ण व्याधितं क्रिमिभक्षितम् // कफपित्तहरास्तिक्तास्तस्या पचाकुराः स्मृताः 302 कन्दं विवर्जयेत् सर्व यो वा सम्यक्ष रोहति // 312 // तेषां विशेषगुणमाह-मधुर इत्यादि / महदल्पभेदेन शता हेगमाह-बालमित्यादि / इति कन्दवर्गः // 312 // वरी द्विविधा / तस्या एवाकुराः शतावर्यकुरा इत्यर्थः // 300 अथ लवणवर्गः। 302 // अथ लवणानि-सैन्धवसामुद्रविडसौवर्चलरोमअविदाहि बिसं प्रोक्तं रक्तपित्तप्रसादनम् // कौद्भिदप्रभृतीनि यथोत्तरमष्णानि वातहराणि विष्टम्भि दुर्जरं रूक्षं विरसं मारुतावहम् // 303 // कफपित्तकराणि कटुपाकीनि यथापूर्व. स्निग्धानि गुरू विष्टम्भिशीतौ च शृङ्गाटककशेरुको॥ स्वादूनि सृष्टमूत्रपुरीषाणि चेति // 313 // पिण्डालकं कफकरं गुरु वातप्रकोपणम् // 304 // अथेत्यादि / सैन्धवं प्रसिद्ध; दक्षिणसमुद्रसमीपभवं सामुद्र; सुरेन्द्रकन्दः श्लेष्मघ्नो विपाके कटु पित्तकृत् // विडं कृत्रिम खनाम्ना ख्यातं, तच प्रसारणीकल्कभक्तलवणसंयोसुरेन्द्रकन्दो वज्रकन्दः // 303 // 304 // गादग्निदाहेन निवृत्तं; सौवर्चलं प्रसिद्धं तदेव निर्गन्धं कालल. वेणोः करीरा गुरवः कफमारुतकोपनाः॥३.५॥ वणमित्युच्यते; रोमकं शाकम्भरीदेशोत्थं, 'रुमासरःसंभवम्' इत्यन्ये; भूमिमुद्भिद्योत्पन्नस्य क्षारोदकस्य सूर्यरश्मिभिर्वहिना वेणोरित्यादि / वेणोः करीरा वंशमूलाकुराः // 305 // वा क्वथनाघल्लवणमुत्पद्यते तदौद्भिदं; प्रभृतिग्रहणादूषरप्रसवा... स्थूलसूरणमाणकप्रभृतयः कन्दा ईषत्कषायाः दीनि / तेषां सामान्यगुणमाह-यथोत्तरमित्यादि / जेज्झटकटुका रूक्षा विष्टम्भिनो गुरवः कफवातलाःपित्त- श्चरकमतानुसारेण सैन्धवानन्तरं सौवर्चलं प्रठति; 'तदसम्यक, हराश्च // 306 // | सामुद्रात् सौवर्चलस्योष्णवात् ; उत्तरोत्तरमुष्णानीति वचनात्' अन्यानपि कन्दानेकगुणान् वर्गीकृत्याह-स्थलेल्यादि / इति गयी // 313 // स्थूलकन्दो ग्राम्यकन्दः; केचित् 'सकलकन्द' इति पठन्ति, चक्षुष्यं सैन्धवं हृद्यं रुच्यं लध्वग्निदीपनम् // तत्रापि स एवार्थः; शूरणः खनामप्रसिद्धः; माणकं महापत्रं स्निग्धं समधुरं वृष्यं शीतं दोषघ्नमुत्तमम् // 314 // यथापूर्वमधःपत्रपरित्यागि / प्रभृतिशब्दात् केवदादिकन्दाः। सामुद्रं मधुरं पाके नान्युष्णमविदाहि च॥ तेषां सामान्यगुणमाह-ईषत्कषाया इत्यादि // 306 // भेदनं स्निग्धमीषच शूलनं नातिपित्तलम् // 315 // मान(ण)कं स्वादु शीतं च गुरु चापि प्रकीर्तितम् // सक्षारं दीपनं सूक्ष्मं शूलहृद्रोगनाशनम् // रोचनं तीक्ष्णमुष्णं च विडं वातानुलोमनम् // 316 // स्थूलकन्दस्तु नात्युष्णः, सूरणो गुदकीलहा 307 लघु सौचर्चलं पाके वीर्योष्णं विशदं कटु // विशेषगुणमाह-मानकमित्यादि // 307 // गुल्मशूलविबन्धनं हृद्यं सुरभि रोचनम् // 317 // कुमुदोत्पलपमानां कन्दा मारुतकोपनाः॥ रोमकं तीक्ष्णमत्युष्णं व्यवायि कटपाकि च // कषायाः पित्तशमना विपाके मधुरा हिमा:॥३०८॥ वातघ्नं लघु विस्यन्दि सूक्ष्म विभेदि मूत्रलम् 318 वराहकन्दः श्लेष्मनः कटुको रसपाकतः॥ लघु तीक्ष्णोष्णमुत्क्लेदि सूक्ष्म वातानुलोमनम् // मेहकुष्ठकृमिहरो बल्यो वृष्यो रसायनः॥ 309 // सतिक्तं कटु सक्षारं विद्याल्लवणमौद्भिदम् // 319 // 1 'मधुरं रूक्षं दुर्जरं वातकोपनम्' इति पा० / 1 रूक्षं' इति पा.। 2 'हृद्रोगकफनाशनम्' इति पा० /
SR No.004403
Book TitleSushrut Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushrut Maharshi, Narayanram Acharya
PublisherChaukhambha Orientaliya
Publication Year
Total Pages922
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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