SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5 आवश्यकचूर रत्नदृष्टांत- : : 81 जणएण य ते पुत्ता दिट्ठा दुट्ठकम्मगारविया / आयरियउचज्झाय-पयं लहिज्जाऽहलगुणेहिं / / 20 / / - भावार्थ:-तेवारपछी परदेशथी आवेला गीतार्थरूप पिताए दुष्ट एवा आठकर्मवडे गर्व पामेला पेला कुगुरुरूप पुत्रोने जोया, केमके सारा गुणो होय तो आचार्य तथा उपाध्यायन पद लइ शके, पण गुण विनाना कुगुरुओने तेवी सारी पदवीओ शोभती नथी, पण हमणा तो एहवी रुढी चाली छे के प्रतिक्रमण क्रियानं ठेकाणुं होय नहि अने संस्कृतभाषामां शब्दनी विभक्ति पण जाणता होय नहिं, जाती पण कुणबी (पटेल) होय के कोली के रबारी होय के मोची होय अथवा अनेक अनाचारो सेवता होय अने बाह्यथी बहु आडंबरी होय अने श्रीतीर्थंकरमहाराजनी आज्ञाना उत्थापक होय तेवा कुगुरुओ पण पोताना रागी वाणियाओने अथवा पैसाथी गुलाम करेला ब्राह्मणोने भेगाकरीने योगोद्वहन कर्या विनाज मिथ्याभिमानीओ पोताने हाथे आचार्यपद लइने बेसे छे ते दुष्टो आचार्यनामधारियोने दीवालीकल्पमां कहेला नरकगामि आचार्योनी संख्यामां पंडितोए लेवा, केमके संघनी समक्षपण आचार्यपद आपनार तो शुद्ध आचार्य होय ते ज योग्य तथा
SR No.004393
Book TitleNarbhavdrushtantopnaymala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1996
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy