________________ 7 राधावेध दृष्टांतः : : 131 पूरेसु तुम मम वच्छ ! वंछियं विहिऊण राहं च / परिणेसु णिव्वुइराय-कणयं अज्जसु सुरज्जं // 57 / / भावार्थ:-त्यारबाद विचित्रशस्त्रने धारण करनार ते सुरेंद्रदत्तने खोलामां लइ राजाए खुश थइ कह्य के-हे वत्स ! राधावेध करी मारा अभिलाषने पूरो कर, तेमज शान्तराजकन्याने परणीने आ श्रेष्ठराज्यने आज प्राप्त करी ले // 56-57 / / ताहे सुरिंददत्तो नरनाहं नियगुरुं च नमिऊण / आलीढट्ठाणढिओ धीरो घणुदंडमादाय / / 58 // निम्मलतेल्लाऊरिय-कुंडयसंकंतचक्कमणछिदं / पेहितो अवरेहि होलिज्जंतोवि कुमरेहिं // 59 / / अग्गियपव्ययप्पमुहेहि रोडिज्जतोवि तेहि चेडेहि / गुरुणा निरूविएहिं पासट्ठिएहिं च पुरिसेहिं // 60 // आकड्ढियखग्गेहिं जइ चक्कसि तावयं हणिस्सामो / इइ जंपिरेहि तेहि तरिजज्जतोवि पुणरूतं // 61 // लहुहत्थो उड्ढमुहो एगग्गमणो महामुणिदोव्व / उवलद्धचक्कविवरो राहं विधइ सरेण लहुं // 62 / / ___ भावार्थः-त्यारबाद पोताना पिताने अने गुरुने प्रणाम करी अश्लिष्टस्थाने स्थित थइ धनुदंड हाथमां लइ धैर्यपूर्वक सुरेंद्रदत्त उभो रह्यो, निर्मलतेलथी भरेल कुण्डामा प्रतिबिंबित थयेल राधावेधना चक्रगणना छिद्रने जोता अने बीजा कुमारोथी हलावता,