________________ 128 : : नरभवदिटुंतोवनयमाला करवो ! एम कही आग्निक, पर्वत, बाहुली अने सागर नामना चारे दासीपुत्रो उठीने जेटलामा स्तंभ पासे आव्या के तुरत ज एकने हस्तकंप थयो अने बीजार्नु बाण भांगी गयुं अने त्रीजाना चित्तमां विक्षेप थयो अने दिङ्मूढ बनी गयो, अने चोथो भ्रमितदृष्टि थयो, आथी राधावेध जोवाने आवेला बीजा तमाम राजाओ इंद्रदत्तनरेशन. उपहास ( मश्करी ) करवा लाग्या // 45-46-47 / / , तं पासिऊण राया विसायचित्तो विउत्तमूढमई / लज्जाए धरणियलं पविसिज्जमाणो पलोइ अहं // 48 / / भावार्थ:-आवो बनाव जोइ राजा विषण्ण (खेदयुक्त) चित्तवालो थइ अने कर्त्तव्यमूढ थइ जवाथी शरमाइ पृथ्वी तरफ (नीचे) जोवा लाग्यो // 48: / भणिओ य अमच्चेण देव ! विमुंचह विसायमण्णोवि / अत्थि सुओ तुम्हाणं ता तंपि परिक्खण इयाणि / / 49 / / भावार्थः-अत्यंत खेदथी पृथ्वीउपर नीचु जोता राजाने जोइ मंत्रिए कह्य हे देव ! विषाद (खेदने) छोडीदो, हजी बीजो पण एक पुत्र तम्हारो बाकी छे, तेनी परिक्षा करो, हवे वखत नजीक आवी लाग्यो छे // 49 / /