________________ 100 : : नरभवदिटुंतोवनयमाला उद्यानमाथी गाम तरफ पारणामाटें आवता एक मासोपवासथीं शरीर जेनुं कृश थयु छे एवा महामुनिराजने जोया अने प्रसन्नचित्त तेमज प्रफुल्लित नेत्रदर्शनथी विचार्यु के-अहो ! मारी पुण्यश्रोणी केवी छे !! कारण के चिंतामणिरत्नसमान मासोपवासी महामुनिराज मने अकस्मात ज मल्या, खरेखर भोजनसमये निर्भागी (भाग्यहीन) मनुष्योने आवो कल्पवृक्ष मली शकतोज नथी / / 54-55-56-57 // इह जुग्गं जमि खणे संपज्जइ दाउमइमहंग्धं तं / ता कुम्मासच्चिय मज्झ संपयं उत्तम दाणं // 58 // भावार्थ:-जे वस्तु जे वखते देकाने योग्य होय छे तेज वस्तु बहु किमती होय छे कारणके मारी पासे बीजी वस्तु तो छे नहि तेटला माटे गाममांथी भिक्षामां आवेला आ अडदना बाकुलामांथी अत्यारे कांइक देवं ते वधारे उत्तम छे / / 58 // . अइयहलपुलयकलिओ हरिसंसुपउल्ललोयणजुगिल्लो / पभणइ भगवं गिण्हसु मम करुणं काउ कुम्मासे / / 59 // . भावार्थ:-एम विचारी आखा शरीरना रोमांच (रंवाडा) जेनां प्रफुल्लित थइगया छे एवा, अने हर्षना अथवडे करीने भीजायेल नेत्रवालो थइ मूलदेव कहेवा लाग्यो के-त्रण जगत्ना जन्तुना उद्धारक हे भगवन् !