________________ श्रीविनयसूक्तानि __399 56 श्रीविनयसूक्तानि विनय-अविनयथी थता गुण-दोष जो परिभवइ अविणया, धम्मगुरुं जत्थ सिक्खए विज्ज / सा सुगहियावि विज्जा, दुक्खेण तस्स देइ फलं // 1 // सव्वत्थ लब्भेज्जा नरो, वीसंभं पच्चयं च बुद्धिं च / जइ गुरुणोवइटें, विणयं भावेण गिण्हेज्जा // 2 // विणओ सिरीणं मूलं, विणओ मूलं समत्थसोक्खाणं / विणओ हु धम्ममूलं, विणओ कल्लाणमूलंति // 3 // विणएण विहीणस्स उ, सव्वं पि निरत्थय अणुहाणं / तं चैव विणयसारं, सयल सहलत्तणमुवेति // 4 // तह विणयविहीणम्मि, सिक्खावि निरत्थिया भवे सव्वा / विणओ सिक्खाए फलं, विणयफलं सव्वपाहन्नं // 5 // दोसा वि गुणा विणया उ होंति, दोसा गुणावि अविणीए / सज्जणजणमणरंजण--जणणी मेत्ती, विणयाओ // 6 // विणयपरम्मि गुरुत्तं, सम्मदसंति जणणीजणयावि। विणयविहीणे पुण ते वि, अहह सत्तुं विसेसेंति // 7 // . . विणयोवयारकरणा, अदिस्सरूवावि दिति दरिसावं / / अविणयजणियाणक्खा, फिडंति पासहिआवि लहु // 8 // विणयाओ विस्साओ, विणयाउ सयलअत्थसिद्धीओ। विणयाओ च्चिय फलदा-- इणी उ सवाउ विज्जाउ // 9 //