________________ 389 जैनसिद्धांतसूक्तानि पुवरिसिसुभासिआई, अणेगसो पढसि सुणसि तह निच्चं। भावसि य अइनिउणं, तप्परमत्थं च बुज्झसि य // 57 // न उण अणुभवसि पसमं, न य संवेगं न यावि निव्वेयं / न मुहुत्तमेत्तमवि तह, तब्भावत्थेण परिणम // 58 // पदवीधारीओने विचारवा योग्य बहुश्रुतो जनैः सङ्घ-संन्योप्यनुभवं विना / ख्यातोऽर्हच्छासनस्याय, वैरी सूरिस्तथा तथा // 59 // जह जह बहुस्सुओ, संमओ य सीसगणसंपरिवुडो य / अविणिच्छिओ य समये, तह तह सिद्धंतपडिणीयो // 60 // तीताऽणागतकाले, केई होहिंति गोयमा ! / सूरी जेसिं नाम-ग्गहणे वि हुज्ज णियमेण पच्छितं // 61 // .. योग्यायोग्यने आचार्यपदवी आपवाथी थता गुणदोष योग्यस्यैव विनेयस्य, प्रदेया गणधारिता / अयोग्यस्य तु तदाने, दातुर्दोषो भवेन्महान् // 63 // तदाचार्यपदं देयं, योग्यस्यैव विवेकिना / अयोग्यस्तु न तस्याः , पायसस्येव वायसः // 64 // - सूक्ष्मपरमाणु केवो होय ? कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसवर्णगन्धो, द्विस्पर्शश्व कार्यलिङ्गश्च // 65 // ...