________________ 388 सुभाषितसूक्तरत्नमाला संसारनी अनंतता अने मनुष्यपणानी दुर्लभता अव्ववहारनिओएसु, चिट्ठति जंतुणो सव्वे / पढमं अणंतपोग्गल-परियट्टा थावरत्तेण // 48 // तत्तो विणिग्गया विहु, ववहारवणस्सइम्मि निवसति / कालमणंतपमाणं, अणंतकायाइभावेणं // 49 // तत्तो वि समुव्वट्टा, पुढ विजलानलसमीरममंमि / अस्संखोसप्पिणिओ-सप्पिणी निवसंति पत्तेयं // 50 // संखिज्जं पुणकालं, वसंति विगलिंदिएमु पत्तेयं / एवं पुणो पुणो च्चिय, भमंति ववहाररासिम्मि / / 51 // इय केइ भमिऊणं, पणिदितिरियत्तणं पि पावंति / तत्तो कहमवि मणुय-तणं पि इय दुल्लहं एयं // 52 // आत्माने स्वयं समजवा चेतवणी सक्खं (सत्थं) जिणिंदभणियं, इमं तिपयं च गणहरेण पुणो। तस्सीसेण य एयं, चोइसदसपुब्बिणा य इमं // 53 // पत्तेयबुद्धपमुहेहिं, भासियं पुव्वजिणवरेहिं / इमं भणियं इच्चाइ, परपच्चायणवयणचिंतणओ // 54 // हे चित्त ! सिज्जसिच्चिय, सयं रसाणुभवसुन्नमेव तुमं / दग्विव्व दिव्वभोयण-बहुविहरसपयडणपरावि // 55 // अहवा वासिज्जई, भिज्जइ य, दब्बीरसेण न पुण तुमं / जिणवयणमणुसरंतं पि, मूढ हे ! हियय ! कहमिहरा // 56 //