________________ 3.82 सुभाषितसूक्तरत्नमाला अरहा अत्थं भासति, तमेव सुत्तीकरेंति गणहारी। अत्थेण विणा सुत्त, अणिस्सियं केरिस होति // 17 // तीर्थकरदेवने न माननार कोईने प्रमाण नथी तित्थयरे भगवंते, जगजीववियाणये तिलोकगुरु / जो ण करेइ पमाणं, न सो पमाणं सुअहराणं // 18 // केवळीभगवाननी गोचरीजवानी विधि. यदि तु स्वयं एकाकी भवति तदा स्वज्ञानबलेन यथायोग्यं शुद्धमेव गृह्णाति // तीर्थंकरोतुं अनुकरण करवानो निषेध. सव्वे वि एगदसेण, निग्गया जिणवरा चउव्वीसं / न य नाम अन्नलिंगे, नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा // 19 // तेण अरिहा रहिआ, सलिंग-परलिंग-अगारलिंगेहिं / तस्सऽणुरूवं रूवं, धरिउं सम्मं न साहणं // 20 // केवली शिष्यने छद्मस्थ गुरु वंदन करे छे इओ य तस्य केवलिणी, गुरुजसभदो नाम तत्थागओ। सोवि केवलिणं नमिऊण, निसन्नो कया केवलिणा धम्मदेसणा // 21 // आगाद्यशोभद्रसूरिः, तदा तस्य मुनेगुरुः / / तं च केवलिनं ज्ञात्वा, वन्दित्वा न्यषदत्पुरः // 22 // ___त्रणेलोकमां शाश्वत प्रतिमानी संख्या देवेसु कोडिसयं, कोडिबावन्नलक्खचउणउई / सहसा चउआलीसं, सत्तसयासट्ठी अब्भहियां // 23 //