________________ श्रीमुनिधर्मसूक्तानि 363 मुनिओना अचेलकत्वनो विचार अचेल एव पराक्रमेदचेलतया शीतादिस्पर्श सम्यगधिसहेत / (आ. दी. टीका पृ, 210) स्वेदाद्रीभूतसर्वाङ्ग-मललिप्तांशुकद्वयः। तृष्णाततॊऽचिन्तयदिति, चारित्रावरणोदयात् // 83 // (पर्व 10, सर्ग-१ श्लोक-३३) सर्वेमी मुनयश्चोल-पट्ट परिदधत्यमी / स्थविरत्वात्तु युष्माकं, शाटकोऽप्यनुमन्यते // 84 // ___ साधुधर्मनुं काठिन्यपणुं आगासे गंगसोउन्च, पडिसोउव्व दुत्तरो / बाहाहिं चेव गंभीरो, तरिअब्बो महोअही // 85 // वालुगाकवलो चेव, निरासाए हु संजमो / जवा लोहमया चेव, चावेयव्वा सुदुक्करं // 86 // . कषायथी देशोनपूर्वक्रोडवर्षतुं चारित्र नष्ट थाय जं अज्जियं चरित्तं, देसूणावि पुचकोडीए / तं पि य कसायमत्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेण // 87 // ज्ञान-दर्शन अने चारित्रना योगने साधक होय तेज कार्य . बाकी अकार्य कजंपि नाण-दसण-चरित्त-जोगाण साहगं तु / जइणो सेसमकजं, ण तत्थ आवस्सिया सुद्धा // 88 //