________________ 361 श्रीमुनिधर्मसूक्तानिः सर्वव्यसनीने पण सामान्य एकाद नियम पण लाभदायक छे मज्जासी मंसरओ, इक्केणवि चेव गंठिसहिएण / सोहं तु तंतुवाओ, सुसाहुवाओ सुरो जाओ // 72 // एकोऽपि नियमो येन गृहीतो गृहमेधिना / जिनाज्ञा पालिता तेन भवाकूपारपारदा // 73 // आत्मकल्याणना त्रणमार्ग तथा संसारना त्रणमार्ग . सावज्जजोगपरिव-ज्जणाओ, सव्वुत्तमो जइधम्मो / वीओ सावगधम्मो, तइओ संविग्गपक्खपहो // 74 // सेसा मिच्छदिहि, गिहिलिङ्ग-कुलिङ्ग-दव्वलिङ्गेहिं / जह तिन्निओ मुक्खपहा, संसारपहा तहा तिन्नि // 76 // पूर्वपुरुषों साथे स्पर्धा करवी नकामी छे पूर्वपुरुषसिंहानां, विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् / श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः, कथं स्वबुद्धया मदं यान्ति // 77 // मुनिओ प्रासुकपाणीथी स्नान करे तो शुं दोष ? प्रश्न अने उत्तर अर्हद्भिर्भाषितो धर्मों, ऽनवद्यः सकलो पि हि। . स्नायेत प्रासुकाम्भोभिश्चेद् दोषः स्यात् तदा हि कः // 781 स्नानं मददपंकरं, कामाझं प्रथमं स्थितम् / / तस्मात् कामं परित्यज्य, नैव स्नान्ति दमे रताः // 79 // निर्विकृतिकस्यैव, प्रत्याख्यानतया विधानेपि / विकृतिपरिमाणप्रत्याख्यानमपि न दुष्टमप्रमादवृद्धि हेतुत्वात् / /