________________ 358 सुभाषितसूक्तरत्नमाला आरंभिणी कामगुणेसु गिद्धा, चारित्तभारुव्वहणाऽसमत्था / पेच्छन्ति साहूण असंतदोसे, गुणे न संतेवि महातमंधा // 51 // सावद्यमुक्ताः किल शीलरक्ता-चारित्रिणो ये बहुलब्धियुक्ताः। शङ्खर्षियच्छुद्धतरा:स्युरत्रो-त्सर्गापवादानपि सेवमानाः // 52 // __ आहार वापरनारा मुनिओ सदा उपवासी कहेवाय.. निरवज्जाहारेणं, साहणं निच्चमेव उववासो। उत्तरगुणवुढिकये, तहवि हु उववासमिच्छति // 53 // अकृताकारितं शुद्ध-माहारं धर्महेतवें / अश्नतो हि मुनेनित्यो-पवासफलमुच्यते // 54 // आचार्य भगवंत वैरंगिकानामुपकारकाणां, वचस्विन कीर्तिमतां कवीनाम् / अध्यापकानां सुधियां च मध्ये, दधुः सदा ये प्रथमत्वमेव / 55 // आचार्यनी आधीनता सर्वअनर्थ नाश करनार छे जाए सद्धाए निक्खंतो, परिआयट्ठाणमुत्तमं / तमेव अणुपालिज्जा, गुणे आयरियसंमये // 56 // आचार्यपराधीनता-निखिलानर्थनिबन्धनम्बरताप्रतिपन्थिनी। चारित्रना उत्तरगुणो पिंडस्स जा विसोही, समिइओ भावणा तवो दुविहो / पडिमा अभिग्गहावि य, उत्तरगुणमो वियाणाहि / / 57 // अवि राया चए रज्ज, न य दुच्चरियं कहे // श्लोकाः