________________ 324 सुभाषितसूक्तरत्नमाला __कष छेद अने तापनी समजण प्राणवधादिकानां, पापस्थानानां यस्तु प्रतिषेधः। '' ध्यानाध्ययनादीनां, यश्च विधिरेष धर्मकषः // 3 // बाह्यानुष्ठानेन येन, न बाध्यते तन्नियमात् / सम्भवति च परिशुद्धं, स पुनर्धर्मच्छेद इति // 4 // जीवादिभाववादो, बन्धादिपसाधक इह तापः / एतैः सुपरिशुद्धो, धर्मो धर्मत्वमुपैति // 5 // धर्मनी महत्ता धर्मों मङ्गलमुत्तमं नरसुरश्रीभुक्तिमुक्तिप्रदो, धर्मः स्निह्यति बन्धुवद् दिशति वा कल्पद्रुवद्वाञ्छितम् / धर्मः सद्गुणसङ्गमे गुरुरिव स्वाभावराज्यप्रदो, धर्मः पाति पितेव वत्सलतया मातेव पुष्णाति यः // 6 // 'कला हि सफला सैव, या धर्मस्योपयोगिनी // श्लोकाः' दान-शील-तप-भावनां उदाहरणो दानं धनदव(यं, शीलं सीतेव निर्मलम् / सुन्दरीवत्तपः कार्य, भावना भरतेशवत् // 7 // धर्म विना सुख नथी "विना धर्म सुखं न स्यात्, स्यात् ? सर्वेषां तदान किम् ॥श्लोकार्थः" ____संसारमा सर्व वस्तु प्राप्य छे पण धर्मज दुर्लभ छे लभंति विउला भोगा, लब्भंति मुरसंपया। लन्भंति पुत्तमित्ताणि, एगो धम्मो न लंभइ // 8 //