________________ 292 सुभाषितसूक्तरत्नमाला सावज्जणवज्जाणं जो न जाणइ विसेसं। वोत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं // 14 // त्यक्तदाराः सदाचारा, मुक्तभोगा जितेन्द्रियाः। जायन्ते गुरवो लोके, सर्वभूताभयप्रदाः // 15 // निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः, स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते। गृणाति तत्त्वं हितमिच्छुरङ्गिनां, शिवार्थिनां यः स गुरुनिगद्यते वंदिज्जमाणा न समुक्कसंति, हीलीजमाणा न समुज्जलन्ति / दंतेण चित्तेण चरन्ति धीरा, मुणी समुग्घाइअरागदोसा // 17 // अगीअत्थस्स वयणेणं, अमियं पि न घुटए / गीयत्थस्स वयणेणं, विसं हालाहलं पिबे // 18 // वृढो गणहरसदो, गोयमाईहिं धीरपुरिसेहिं / जो तं ठवेइ अपत्ते, जाणंतो सो महापावो // 19 // नासेइ अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोअसारंगं / नर्सेमि अ चउरंगे, न उ सुलहो होई चउरंगो // 20 // तुमं अगीअत्थनिसेवणेणं, मा जीव भदं मुण निच्छएणं / संसारमाहिंडसि घोरदुक्खं, कया वि पावेसि न मोक्खसुक्खं // अगीओ न वियाणइ, सोहि चरणस्स देइ उणऽहियं / तो अप्पाणं आलो-यगं च पाडेइ संसारे // 22 // आगमश्चोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् / . अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये // 23 //