________________ 283. भिन्नभिन्नविषयकसूक्तानि पशुः पण्यं धनं गोष्ठी, भोगधर्मजिनालया। क्रमशो भूमय: सप्त, सप्तभूमिनिकेतने // 22 // चक्रिको मोर्चिको लोह-कारो रजकगंच्छिकौ / माच्छिकः शूचिको भिल्लो जालिक: कारवो नव // 23 // स्वर्णकृन्नापितः कान्द-विक: कौटुम्बिकस्तथा। मालिकः काछिकश्चापि, ताम्बूलिकश्च सप्तमः // गन्धर्वः कुम्भकारः स्या-देते च नव नारवः // 24 // सद्गमनसनिरीक्षण-सज्जल्पनमिति वदन्ति लावण्यम् / ईश्वरता सुस्वरता, सुन्दरता चेति सौभाग्यम् // 25 // गजे शखे हरौ छत्रे, चन्द्रे पझे जिनालये / मौक्तिके विद्रुमे स्वर्णे, या नित्या परमेश्वरी // 26 // इदमस्तु संनिकृष्टे, समीपतरवर्ति चैतदो रूपम् / अदसस्तु विप्रकृष्टे, तदिति परोक्षे विजानीयात् // 27 // मणपरमोहिपुलाए, आहारगखवगउवसमे कप्पे / संजमतियकेवलसि-ज्झणा य जम्बुमि वुच्छिन्ना // 28 // ग्रामो वृत्यावृतः स्यात्, नगरमुरुचतुर्गों पुरोद्भासिशोभं, खेट नद्यद्रिवेष्टं परिवृतमभितः कर्बर्ट पर्वतेन / प्रामैर्युक्तं मडम्बं दलितदशशतैः पत्तनं रत्नयोनिः, द्रोणाख्यं सिन्धुवेलावलयितमथ सम्बाधनं चाद्रिशृङ्गे // 29 //