________________ 248 सुभाषितसूक्तरत्नमाला परिग्गहारंभभरं करंति, अदत्तमन्नस्स धणं हरंति। . धम्मं जिणुत्तं न समायरंति, भवन्नवं ते कहमुत्तरंति // 7 // आणं जिणाणं सिरसा वहंति, घोरोवसग्गाइ तहा सहति / धम्मस्स मग्गं पयर्ड कहंति, संसारपारं नणु ते लहंति // 8 // भासिज्जए नेव असच्चभासा, न किज्जए भोगसुहे पिवासा / खंडिज्जए नेव परस्स आसा, धम्मो य कित्ती इय सप्पयासा॥ दुरंतमिच्छत्तमहंधयारे, परिप्फुरंतम्मि सुदुन्निवारे / न सुद्धमग्गाउ चलंति जे य,सलाहणिज्जा तिजयम्मि ते य॥१०॥ असारसंसारसुहाण कज्जे, जो रज्जइ पावमई अवज्जे / अप्पाणमेसो खिवा किलेसे, सग्गापवग्गाण कहं मुहं से // 11 // नरिंददेवेसरपूइयाणं, पूयं कुणंतो निणवेइयाणं / दव्वेण भावेण मुहं चिणेइ, मिच्छत्तमोहं तह निज्जिणेइ // 12 // दुक्खं सुतिक्खं नरए सहित्ता, पंचिंदियत्तं पुण जो लहित्ता / पमायसेबाई गमिज्न कालं, सो लंविही नो गुरुमोहजालं // 13 // तवोवहाणाइ करित्तुं पुव्वं, कया गुरूणं च पणामपुव्वं / सुत्तं च अत्थं महुरस्सरेणं, अहं पढिस्सं महयायरेणं // 14 // कम्मवाहिहरणोसहाणि, सामाझ्यावस्सयपोसहाणि / सिद्धान्तपन्नत्तविहाणपुवं, अहं करिस्सं विणयाइ सव्वं // 15 // आणं गुरूगं सिरसा वहिस्सं, सुत्तत्थसिक्खं विउलं लहिस्सं / कोहं विरोहं सयलं चइस्सं, कया अहं. मदवमाय रिस्सं // 16 //