________________ 247 उपदेशसप्ततिः जम्बू चासमऊरे, भारदाए तहेव नउले अ। दसणमेव पसत्थं, पयाहिणे सव्वसंपत्ती // 11 // नकुलाजमयूराणां, चापखञ्जनयोरपि / दर्शनं कीर्तनं शब्दः, सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ! // 12 // "दक्षिणात् वामगमनं प्रशस्तं श्च शगालयोः। श्लोका]" "लग्नं यम्मान्निमित्तानां, शकुनो दण्डनायकः / [श्लोकार्ध]" 98 उपदेशसप्ततिः तित्थंकरणं चरणारविंदं नमित्तु, नीसेसमुहाण कंदं / मूढोवि भासेमि हिओवएस, सुणेह भव्या ! सुकयप्पवेसं // 1 // सेविज सव्वन्नुमयं विसालं, पालिज्ज सीलं पुण सव्वकालं। न दिज्जए कस्स वि कूडआलं, छिदिज्ज एवं भवदुक्खजालं॥२॥ पयासियव्यं न परस्स छिदं, कम्मं करिज्जा न कया वि रुदं / मित्तण तुल्लं च गणिज्ज खुई, जेणं भविज्जा तुह जीव भई॥३॥ रोगेहिं सांगेहि न जाव देहं, पीडिज्जए वाहिसहस्सगेहं / ताज्जया ! धम्मपहे रमेह, बुहा ! मुहा मा दियहे ममेह // 4 // जया उदिण्णो नणु को वि वाही, तया पणट्ठा मणसो समाही। तीए विणा धम्ममइ वसिज्जा, चित्ते कहं दुक्खभरं तरिज्जा॥५॥ विरत्तचित्तस्स सया वि सुक्खं, रागाणुरत्तस्स अईव दुक्खं / एवं मुणित्ता परमं हि तत्तं, नीरागमग्गम्मि धरेह चित्तं // 6 //