________________ सुभाषितसूक्तरत्नमाला हे ! लोकाः ! परदोषतप्तिविषयव्यापारमुत्सृज्य तं, स्वाध्यायं कुरुतादरेण शिवदं श्रीमज्जिनैर्भाषितम् // 5 // जइ वि हु दिवसेण पयं, धरेइ पक्खेण वा सिलोगई / उज्जोयं मा मुंचसु, जइ इच्छसि सिक्खिउं नाणं // 6 // ये लेखयन्ति जिनशासनपुस्तकानि, व्याख्यानयन्ति च पठन्ति च पाठयन्ति / शृण्वन्ति रक्षणविधौ च समाद्रियन्ते, ते मर्त्यदेव शिवशर्म नरा लभन्ते / / 7 // पठति पाठयते पठतामसौ, वसनभोजनपुस्तकवस्तुभिः / प्रतिदिनं कुरुते य उपग्रहं, स इह सर्वविदेव भवेन्नरः // 8 // बारसविहम्मि वि तवे, सन्भिंतरबाहिरे कुसलदिहे। न वि अत्थि न वि अं होही, सज्झायसमं तवोकम्मं // 9 // सज्झायं धम्मकहं, च तस्स सोऊण उवसमं पत्ता / करि-वग्ध-सिंह-चित्तय-सबर-हरिणाइणो सत्ता // 10 // ते केवि सावगत्तं, सम्मत्तं केवि केवि अविरोहं / केवि हु भदगभावं, पडिवन्ना अणसणं केवि // 11 // बारसविहम्मि वि तवे, सब्भिंतरबाहिरे कुसलदिहे / नवि अत्थि नवि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्मं // 12 // सज्झायेण पसत्थं, झाणं जाणइ अ सव्वपरमत्थं / सज्झाये वटुंतो, खणे-खणे जाइ वेरग्गं // 13 //