________________ स्वाध्याय सूक्तानि ज्ञानदर्शनचारित्र-रत्नत्रितयभाजने। मनुजत्वे पापकर्म, स्वर्णभाण्डे सुरोपमम् // 22 // चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो / माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमंमि अ विरियं // 23 // न गुह्यरक्षणे दर्श, न दंशमशकापहम् / शुनः पुच्छमिय व्यर्थ, मानुष्यं धर्मवर्जितम् // 24 // देवता विषयासका नारका दुःखविला: / ज्ञानहीनाश्च तियची, धर्मयोग्या हि मानवाः // 25 // 25 स्वाध्यायसूक्तानि पायगा पुच्छणा चैव, तहा य परियणा / अणुप्पेहा धम्मा , सज्झाओ होई पंचहा // 1 // निरन्तरं विचारो यः, श्रुतार्थस्य गुरोर्मुखात् / तन्निदिध्यासनं प्रोक्तं, सच्चैकाग्रेण लभ्यते // 2 // एत्तो सचन्नुत्तं, तित्थयरत्तं च जायइ कमेग / इअ परमं मोक्खंगं, सज्झाओ तेण विन्नेयो // 3 // तं नस्थि जं न पासइ, सज्झायविऊ पयत्थपरमत्यं / गच्छइ सुगइमूलं, खणे खणे परमसंवेगं // 4 // यश्चेतोऽस्थिरवाजिवारणविधौ प्रौढोरुवल्गोपमो, वाग्व्याघ्रीपविपञ्जरप्रतिनिभः कायद्विपेन्द्राङ्कशः।