________________ 40 सुभाषितसूक्तरत्नमाला कारुण्येन हता वधव्यसनिता सत्येन दुर्वाच्यता, सन्तोषेण परार्थचौर्यपटुता शीलेन रागान्धता। नैर्ग्रन्थ्येन परिग्रहिलता यैयौवनेऽपि स्फुटं, पृथ्वीयं सकलाऽपि तैः सुकृतिभिर्मन्ये पवित्रीकृता // 20 // धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मपरायणः।। सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुच्यते // 21 // विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो, जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि।' आकर्णदीर्घो-ज्ज्वल-लोचनोऽपि, . दीपं विना पश्यति नान्धकारे // 22 // दोसा जेण निरुज्झन्ति, जेण खिज्जति. पुन्वकम्माइं / सो सो मुक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं व // 23 // जोगे जोगे जिणसासणम्मि दुक्खक्खयं पउंजन्ता / इक्विक्कम्मि अणंता, वटुंता केवलं पत्ता // 24 // मिच्छत्तमोहणिज्जा, नाणावरणा चरित्तमोहाओ। तिविहतमा उम्मुक्का, तम्हा ते उत्तमा हुति // 25 // नाणं चरित्तहीणं, लिंगग्गहणं च दंसणविहणं / संजमहीणं च तवं, जो चरइ निरत्थयं तस्स // 26 // नो दुष्कर्मप्रयासो न कुयुवतिसुतस्वामिदुर्वाफ्यदुःखं, राजादौ न प्रणामोऽशनवसनधनस्थानचिन्ता न चैव / ज्ञानाप्तिलोकपूजाप्रशमसुखरतिः प्रेत्य मोक्षाधवाप्तिः,