________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 55 उपर्युक्त शिलालेख यह स्पष्ट करता है कि गुडिगेरी की जमीन आनेसेज्जया बसदी के कब्जे में थी। कारण चालुक्य राजकुमारी कुंकुम महादेवी ने उसे बनवाया था। जाहिर है कि 1076-77 का परवर्ती शिलालेख सातवीं सदी के शिलालेख की नकल ही है। _ जैनमुनियों ने सुनियोजित तथा सर्वसमावेशी प्रणाली अपनाकर अपना लक्ष्य प्राप्त किया था। संयम, पवित्र आचरण तथा निस्वार्थ भाव जैनमुनियों में पाये जाते हैं। इससे समाज में उनको आदर सम्मान मिला तथा प्रशंसा भी मिली। पीढियों तक उनको राजनिर्माता के रूप में राजसमर्थन मिलता रहा। सेनापतियों, सामंती राजाओं तथा प्रांतीय राजाओं पर विजय प्राप्त करने के बाद प्रांतीय केंद्रों में उनकी सफलता इन अधिकारियों के संरक्षण में निश्चित ही थी। लोकप्रिय सहयोग प्राप्त करने के बाद उनके अनुयायियों में मध्यवर्ग वीर-बणजिग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उनके साथ था तथा व्यापारी वर्ग की आर्थिक सहायता जैन धर्म को लंबे समय तक मिलती रही। जिससे वे जैनों के भव्य मंदिर तथा प्रतिमाएं बनवा सके। उनके भव्य दिव्य प्रभाव तथा क्रियात्मक राज सहयोग ने जैनधर्म को प्रबल तथा लोकप्रिय बनाया। इन जैन मुनियों के पास न तो कुछ था न ही उनको कुछ चाहिए था और इससे भी बढकर उनके चार सौगातों (शिक्षा, भोजन, औषधि तथा आश्रय) से संबंधित उनके सिद्धान्तों की अनुवीक्षिकता का आग्रह लोगों की भक्ति तथा निष्ठा प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हुआ। इसका कारण था कि उसने मानवता की प्राथमिक आवश्यकता की पूर्ति की थी। परिणाम स्वरूप बडी संख्या में लोग जैनधर्म के प्रभाव में आ गए। (पुसालकर अई: 288) ...जैनधर्म को संचालित करनेवाला प्रेरणादायक प्राणतत्व था भ ारक वर्ग। उनके नैतिक आचरण कडे थे किंतु संयम नियम, निस्वार्थता, सच्चरित्रता, गंभीर विद्यार्जन आदि ने इस धर्म को जीवित, क्रियाशील तथा लोकप्रिय बनाया। इन विशिष्ट अनुशासित मठवासी संघटना की लहर समग्र चालुक्य साम्राज्य में फैल गई और कर्नाटक के दक्षिण में श्रवणबेळगोळ, केल्लिपुसूर, बस्तिपुर (कोळ्ळेगाल) तलकाड तथा उत्तर में ऐहोळे, बादामी, किसुवोळाल , अण्णिगेरे तथा पुलिगेरे में उत्केन्द्रित थे। जैन धर्म की प्रचुर मात्रा में की गई प्रचार प्रक्रिया तथा भागो-उपभागों में उसका शासन अत्यंत तीव्रता से प्रारंभ हुआ। जिसने परवर्ती चालुक्यों के युग में अपनी पराकाष्ठा को देखा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org