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________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 43 हुमच इस स्थान का व्युत्पत्तिपरक अर्थ इस ओर संकेत करता है कि पूर्वी पुरालेखों में दर्ज पोंबुलच यह उसका प्राचीन तथा मौलिक नाम है। भाषा वैज्ञानिक परिवर्तन के कारण पोंबुलच के विवध रूप, जैसे पोंबुरच्च, पुंबुच्च, पोंबुज, होम्बुज तथा हुमच मिलते हैं। यह शब्द पूर्णतः कन्नड प्रदेश का है जिसका अर्थ है देवता का स्थान। विभिन्न कालों में हजारों वर्षों तक बिना किसी रोक टोक के दिगंबरों के शक्तिशाली क्षेत्र के रूप में यह महानगर प्रतिस्थापित हुआ। ___ गंगों के समतुल्य ही सांतरों का जैन धर्म में विश्वास था। और इनके साथ उनका मैत्रीपूर्ण संबंध था। पुरालेख यह स्थापित करते हैं कि सांतर मूलतः 23 वें तीर्थंकर अर्हत पार्श्व के महा-उग्र वंश से संबंधित थे और बाद में, चालुक्यों के काल में मूलनिवासी सांतरों में मिल गए। सिंह उनका राज-चिह्न था और परवर्ती कदंबों के समान कपिध्वज था। कुलदेवता लोककियब्बे (पद्मावतीदेवि) ने सांतरों को साम्राज्य तथा समृद्धी का वरदान दिया था। उन्होंने राजधानी के शहर के केंद्र में / ही प्रार्थना मंदिर के लिए जगह ढूँढी और वहाँ पर लोककियब्बे की प्रतिमा स्थापित की, जो उनके प्रार्थना का प्रमुख स्थान बना। सौंदत्ती के रट्ट, एक अन्य जैन राजवंश, सान्तलिगे सासिर के राजपाल के समकालीन थे। . सांतरों ने अपने राजनीतिक व्यक्तित्व का प्रारंभ आळुपाओं के अधीन रहकर किया जो कि बादामी शासन के सेवक थे। जिनदत्त के काल में ही वे राजी खुशी से रह रहे थे, जो आळुपाओं का पूर्वपूरूष तथा जैनधर्म का संरक्षक था। परिवार के अन्य पूर्वजों के नाम थे श्रीकेशिन, जयकेशिन तथा रणकेशि, जिनका उनके प्रारंभिक स्वामी पुलकेशि, जयसिंह तथा रणराग का जाहिर कथन किया है। जैसे ही राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों की जगह ले ली, उसके तुरंत बाद सांतरों ने भी अपनी निष्ठा विजेता के प्रति रख दी। फिर जैसे ही चालुक्यों ने राष्ट्रकूटों का दमन किया तो सांतरों ने फिर एक बार नवावतरित विजेताओं को अपनाया। इस प्रकार उन्होंने उगते सूरज की ही पूजा की। कुछ पुरालेखों में सांतरों के वंश तथा राजप्रशस्ति का उल्लेख मिलता है, जो उनको उनके शासकों ने दी थी। जिसे समीचीन रूप से कोडीक (codified) किया गया है। राज बीरूदावली स्तुतिपरक रचनाओं को सांतरों के भाटों द्वारा विकसित किया गया था जो कि एक मिल का पत्थर माना जाएगा। गद्य पद्य मिश्रित यह लंबी रचनाएँ पूर्णतः अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। इन लंबी तथा परंपरागत संदर्भो की प्रधान प्रवृत्ति यह है कि अधिकतर सांतरों तथा संदर्भानुसार गंगों और चालुक्यों के प्रामाणिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004380
Book TitleBahubali tatha Badami Chalukya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagarajaiah Hampa, Pratibha Mudaliyar
PublisherRashtriya Prakrit Adhyayan tatha Anusandhan Sanstha
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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