________________ 114 | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य सदी की जैन प्रतिमा तथा बनवासी के पास गुंडनापुर में किए गए उत्खनन में पायी गई छठी सदी की ऋषभ की प्रतिमा परवर्ती प्रतिमा होगी। यह स्वतंत्र प्रतिमाएँ चामरधारी तथा शासन देवताओं से रहित हैं। सामान्यतः स्वीकृत नियमानुसार यक्षी को जिन के बांयी ओर तथा यक्ष को दाहिनी ओर दिखाया गया है। किंतु उनके स्थान का क्रम नौंवीं सदी के अनंतर नया लगता है। चालुक्यों के युग के दौरान ऐहोळे तथा बादामी की गुफाओं में, यक्षी पद्मावती को पार्श्व को दाहिनी ओर दिखाया गया है। किंतु पोम्बुरच के समान दिखनेवाली दो प्रतिमाएं जो कि नौंवीं सदी की है, जिसमें पद्मावती बायीं ओर है। यहीं से यक्षी का दाहिने से बायीं ओर होने की शुरुवात हुई। अंबिका- मूल स्त्रोत - पहली सदियों के आचार्य जैसे जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (520-623), हरिभद्र सूरि (550-640), पुन्नाट संघ के जिनसेन (783), और कवि पोन (960) ने अंबिका का आह्वान किया है। अपभ्रंश साहित्य के जादुगर पुष्पदंत (970) ने कहा है कि अंबिका अपने पूर्व जन्म में जैन श्रविका थी। उसका विवाह जैन ब्राह्मण श्रावक के साथ हुआ था और एक जैन त्यागी को आहार देकर वह देवी बनी। वह उज्जयंत (गुजरात के गिरनार) के जंगल में वास करती थी। वह साहित्य की प्रत्येक गतिशीलता की प्रेरणा है। श्वेतसिंह पर सवार वह दिव्य सौदामिनी को भी मात देती है। उसके तीक्ष्ण नाखून है जिससे वह दुश्मनों की तलवार आदि को भी आसानी से काट देती है। यह सब उसके वर्णन का अभिन्न अंग है। ऐसा माना जाता है कि तर्कविद भट्ट अकलंक (725-80) ने अपने बौद्ध विरोधी को पराजित करने के लिए अंबिका का आह्वान किया था। पुन्नाट संघ (कर्नाट देश के जैनमुनियों की एक शाखा) के जिनसेन ने 784 में वर्धमानपुर (सौराष्ट्र) में हरिवंश पुराण लिखने का कार्य पूर्ण किया। कवि में उज्जयंतगिरि के शिखर पर बने अंबिका यक्षी मंदिर का संदर्भ दिया है। अरिकेसरि तृतीय का दरबारी कवि सोमदेवसुरि (925-84) तथा प्रसिद्ध काव्य यशसतिलक चंपु के रचियता ने राष्ट्रकूटों के युग में रूढिगत अंबिका पंथ का संदर्भ दिया है। अगर हम, रविकीर्ति द्वारा जिक्र किए गए किसी भी साहित्य या शिल्प की मुखमुद्रा का अध्ययन करेंगे तो यह अत्यंत आश्चर्यजनक लगता है कि ना ही कोई प्रतिमा, शिल्प या पेंटिंग और ना ही कोई साहित्य, पाय या संदर्भ कर्नाटक या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org