________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 89 सम्मेदगिरि उपनाम पार्श्वनाथ पहाडी पर आयु के 100 वे साल में मोक्ष प्राप्त किया। ऐसा कहा जाता है कि दिगंबर साहित्य के अनुसार पार्श्व, उग्रवंश का था। उग्र उरग का ही समानार्थी शब्द है। उग्र क्षत्रीय थे। ऋषभ ने इनको प्रजा के रक्षणार्थ (रक्षक) नियुक्त किया था। निष्णांत गुणभद्र आचार्य (898) पार्श्व का उल्लेख उग्रवंशग्रणिः के रूप में करते थे। (उत्तरपुराण 73-166) इस मानव विज्ञान की पृष्ठभूमि के कारण पार्श्व को नाग का प्रतीक चिह्न प्राप्त हुआ। उसका अक्सर 'नागराजेन्द्र-विस्तीर्ण फणालंकृतमूर्तये' कहकर वर्णन किया जाता है। ___ इस पुस्तक के लेखक को अपने अनुसंधान के माध्यम से पार्श्व का कर्नाटक से संबंध दिखाने का मौका मिला। शिलालेख इसकी पुष्टि करते हैं कि सांतर राजवंश तथा उसके संस्थापक जिनका पूर्वी निवास पोंबुलच (आधुनिक होम्बुज क्षेत्र, शिमोगा जिला) में था, पार्श्वनाथ के इसी महाउग्र-वंशी से थे। (नागराज्जय्या हंप : 1997: pp. 27-29) पार्श्व ने चतुर्विद्या संघ का प्रचार किया जिसमें मुनि-आचार्य, साधु-साध्वियाँ, श्रावक-श्राविकाएँ तथा स्त्री-पुरूष सम्मिलित थे। महावीर के विचार या उपदेश भी इन चतुर्विद्या वर्गीकरण से भिन्न नहीं थे। विद्वानों के द्वारा हिसाब लगाने से पार्श्व ई.पू. 877-777 अथवा 817-717 तक जीवित रहा होगा ऐसा माना जाता है किंतु आधुनिक अनुसंधानों के द्वारा ऐसा माना जाता है कि पार्श्व ने अपना आध्यात्मिक व्यक्तित्व ई.पू. छठी सदी के प्रारंभ होने से पूर्व शुरु नहीं किया होगा। . पार्श्व का धरणेन्द्र के साथ संबंध का ऐतिहासिक मूल तथा तत्व मीमांसीय चर्चा करते समय यू.पी शाह ने यह देखा कि, पास (पार्श्व) निश्चित अच्छे स्वभाव का था, उसने सतत पुरुषादानीय (पुरुषश्रेष्ठ) की उपाधि प्राप्त की थी जो आधुनिक लोकमान्य, देशबंधु, महात्मा आदि उपाधियों का ही पूर्ववर्ती रूप है। पुरुषादानिय का अनुवाद अक्सर प्रिय या सम्मानित व्यक्ति के रूप में किया जाता था। (अर्हत पार्श्व तथा धरणेन्द्र-(संपा)-एम. ए. ढाकि 1997-30). पौराणिक पृष्ठभूमि . शत्रुता के कई ऐसे कारण होते हैं जो उनके पूर्वजन्म में बहुत गहरे ज़डे जमाए होते हैं। कमठ, अपधर्मी संत, कठिन तपस्या कर रहा था, जंगल में सांपों को जलता देखकर, पार्श्व ने कमठ की ओर ईशारा करते हुए कहा था कि जिस तपस्या में हिंसा है वह निरर्थक होती है। विचलित कमठ ने पार्श्व से कहा कि वह यह दिखा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org