________________ 80 | बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य उस समय उस प्रांत पर सिंदरस का शासन था और फिर महादेवी अरस से प्रार्थना कर उसने कर्मगालूर की टंकी के नीचे की जमीन जैन देवालय को दान में दी थी। हालाँकि ऐसा माना जाता है कि सिंद तथा माघवत्ति अरस क्रमशः सिंद तथा सेंद्रक परिवार के थे। माघवत्ति अरस के सिंद प्रमुख होने की संभावना की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वास्तव में सिंद तथा सेंद्रक दोनों का मूल एक ही था लेकिन बाद में दोनों की भिन्न भिन्न शाखाएं हो गई। इस पर अधिक विचार की आवश्यकता संक्षेप में, आडूरु यह स्थान तेरहवीं सदी तक जैनों की नगरी के रूप में विशेष प्रसिद्ध था। पूरस्तगण के श्रीनंदी भ ारक की शिष्या तथा बंकापुर के पडेवल चट्टय्या की पत्नी, भागव्वे ने 1247 में आडूरु में उपवास धारण कर मृत्यु को प्राप्त किया था। __ ऐसा विश्वास है कि प्राचीन तथा प्रसिद्ध पुलिगेरे नगर का निर्माण पहले चार युग के प्रथम कल्प में भगवान श्रीहरि ने किया था और तब उसका नाम विष्णुपल्ली था। फिर द्वापर युग में विराटराज के पुत्र श्वेत ने फिर से बनवाया और इस नगरी ने पुरिकर यह नाम अर्जित किया। लगभग ग्यारहवीं सदी के मध्य तक यह नगरी पुलिगेरे नाम से खूब प्रसिद्ध हुई और उसके बाद आधुनिक युग में इसे लक्ष्मेश्वर के नाम से जाना जाने लगा। संस्कृत में लिखित एरेय्यम्मा (600) के शिलालेख में इस नगरी को पुलिगेरे यही नाम दिया गया है जो इस बात को निर्धारित करता है कि वही अर्थात पुलिगेरे ही उसका मूल नाम था। एरेयम्मा का उपर्युक्त शिलालेख यह भी बताता है कि पुलिगेरे दक्षिणात घटिका क्षेत्रं था, अर्थात पुलिगेरे दक्षिण में उच्च शिक्षा का केंद्र था। चालुक्यों के युग में जैन संघ का बढता प्रभाव बहुत सी साक्ष्यों द्वारा सिद्ध होता है। श्रीमद पुरिकरनगर प्रख्यात शंखजिनेंद्र पुलिगेरे 300 उपभाग, पुलिगेरे जैसे राजधानी शहर का अत्यंत प्रसिद्ध मंदिर था। इस स्थान के उपलब्ध अभिलेखों में यह उल्लेखित है कि मध्यकाल के अंत तक अधिकतर जैन प्रमुख महामांडलिक तथा महासामंत इस प्रदेश पर शासन कर रहे थे। जैन राजपाल तथा सेनापति, जैसे बंकरस (835) बूतुग पेरमानंडी (935) मारसिंह (972) जयकेशिन (1038) तथा इंद्रकेसि (1100) आदि पुलिगेरे 300 के प्रभारी थे। (नागराजय्या एरडु वंशगळु : 1995.52-64) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org