________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 71 समयोचित जैनधर्म के अनुरूप वातापी चालुक्यों की कालावधि मूर्तिविज्ञान के लिए महत्वपूर्ण थी। यह वही समय था जब परिकर तथा आठ प्रतिहारों के दल का क्रमबद्ध विकास हुआ। ऐहोळे, बादामी प दकल तथा पुलिगेरे जो भारतीय वास्तुकला की कुंजियाँ थी, ऐसे ही प्रयोग के प्रमुख स्थान थे। तीर्थंकरों तथा शासन देवताओं की प्रतिमाएँ, परिकरों अर्थात उनके संवकों आदि समेत परिपूर्णता के साथ प्रकट हुई थी। प्राचीन केंद्रों से प्राप्त ऐसे शिल्प इसकी साक्ष्य देते है और अन्य केंद्रों से प्राप्त प्रतिमाओं के सह अस्तित्व का भी समर्थन करते हैं। देवी अंविका की प्राचीन मूर्ति, ज्वालामालिनी यक्षी, श्याम यक्ष, अर्हत पार्श्व का शिल्प, बाहुबलि, देवी पद्मावती, धरणेंद्र आदि इन्हीं जगहों की प्रतिमाएँ है। इसकी चर्चा आगे होगी। __ धार्मिक संपन्नता से संबंधित विशेष स्थानों का ऐतिहासिक दृष्टि से किया गया सूक्ष्मातिसूक्ष्म अध्ययन समाज में उनकी भूमिका पर प्रकाश डालता है। तीर्थक्षेत्रों के इतिहास पर किए गए ऐसे अनुसंधान कई छोटे बडे पवित्र स्थानों, केंद्रों को उद्घाटित करते हैं और जिसने श्रमण संघ तथा उपदेशकों के समान ही समर्थकों को जोडने में महत्वपूर्ण तथा प्रभावी भूमिका निभायी थी। लगातार संपर्क ने इस धर्म के प्रचार प्रसार के साथ साथ उसे जीवित रखने में सहायता पहुँचायी। - कस्टगेरी (गदग जिला.) का जिनालय जिसे शांतिभागवद चैतालय कहा जाता था, जो सोलहवें तीर्थंकर को समर्पित था, राजसमर्थन से संपन्न था। रविशक्ति ने (सेंद्रक का आश्रित) इस मंदिर को जमीन दान में दी थी। आचार्य अभयनंदी परलूरु संघ के श्रीनीधि आचार्य के शिष्य, इस दान को प्राप्त करनेवाले थे। कोंडिशुलर कुप्पा उपनाम कीर्तिवर्म ने जेबुलगिरी के चेदिका के सामने एकशिल्प खड़ा किया, जिसे कलियम्म ने बनवाया था। प्रतिष्ठित विद्वान संतों की आकाशगंगा ने इस स्थान तथा काल की प्रंशसा की है। पुरालेखों में उल्लेखित कुछ आचार्यों के नाम निम्नलिखित है... आदित्य पंडित, देवेन्द्र पंडित, जयदेव पंडित, प्रभाचंद्र, अभयनंदी आचार्य, श्रीनीधि आचार्य, विद्यानंद, वासुदेवगुरु, उदयदेव, विजयदंव, रामदेवाचार्य, चिक्कण देवाचार्य, आदिसेन पंडित, देवेन्द्रसेन पंडित, इंद्रनंदी, शिवनंदी, सिद्धनंदी, जयनंदी, सिरिनंदी, अजितसेन, धर्मसेन, पुष्पनंदी तथा बलदेव। जैन त्यागियों की पंक्ति में उनको बनवासी या चैत्यवासी बनने की अनुमति थी। चालुक्यों के काल में परिभ्रमी तथा निवासी त्यागी दोनों सक्रिय थे। इस वक्त यह देखा नहीं जाता था कि वे गृहस्थ है या गृहत्यागी। बस इस बात पर विशेष जोर दिया जाता था कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org