________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 65 फलस्वरूप अपने धर्म के प्रचार में इन्होंने इस समस गणना के लिए अनुकुल वातावरण का निर्माण भी किया था। बादामी के चालुक्य सम्राट दक्षिण भारत के शक युग के प्रचार में प्रमुख माध्यम सिद्ध हुए थे। क्योंकि उन्होंने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था और इस समय तक जैन धर्म कर्नाटक से दृढ संबंध स्थापित कर चुका था और यह मत तथा उसके धर्मगुरु अपने धार्मिक विश्वास से चालुक्य राजाओं का समर्थन पा चुके थे। इसका चित्र उपस्थित करने वाली दो प्रमुख घटनाएँ हैं...पहली घटना है, बादामी की जैनगुफाएँ तथा ख्यातनाम विद्वान तथा कवि रविकीर्ति, जो पुलकेशि द्वितीय का रक्षक था और उसने पुलकेशी की प्रशस्ति की रचना की थी। चालुक्यों ने अपने अभिलेखों में शक युग का प्रयोग किया था और इस प्रयोग के कई उदाहरण विद्यमान हैं। एक बहुचर्चित घटना का यहाँ उल्लेख है। बादामी के एक पाषाण पर लिखे पुरालेख में शक 465 का उल्लेख है। इसमें पुलकेशी प्रथम के द्वारा किले - के निर्माण का वर्णन है। दूसरी घटना है, ऐहोळे में पुलकेशी द्वितीय की प्रशस्ति जिससे दो युगों में तिथियाँ हैं... कलि 3735 तथा शक 556 (देसाई पी.बी. (संपा) (दूसरा सं) 1981:82-89). * जैन परंपराएँ तथा दंतकथाएँ प्रतिष्ठानपुर शहर के इर्द गिर्द बुनी गई थी। जो सदियों तक जैनधर्म तथा जैनगुरुओं का एक मजबूत स्थान था। एक परंपरा के अनुसार सातवाहन राजवंश के एक महत्वपूर्ण राजा हाल ने जिन (जैन) की शिक्षा का लाभ पाया था और प्रतिष्ठानपुर में कई जैन मंदिर बनवाये थे। परंपराएं हाल को शालिवाहन गणना का संस्थापक मानती हैं। तथापि कर्नाटक के संदर्भ में चालुक्य ही पहले राजा थे जिन्होंने शक गणना को लागू किया। जैसा कि इतिहासकारों ने कहा है, इसका कारण जैनों का प्रभाव ही है। राजा गर्दभिल्ल, भृगकच्छ (लाटदेश का भरूच, दक्षिण गुजरात) के एक अमानुषि राजा ने जैन साध्वी तथा आचार्य कालक उपनाम आर्यशाम (प्रथम सदी) की बहन सरस्वती का अपहरण किया और आचार्य के विरोध की उपेक्षा कर उसे पाने के लिए आगे बढा। आर्य कालक पडोसी साहिस (पारसकुल के शक) के पास गया ताकि वह गर्दभिल्ल पर अपनी पुरी शक्ति से वार कर उसे कुचल सके। जैन साध्वी सरस्वती को गर्दभिल्ल से छुडा लिया गया और फिर एक बार उसे जैनों के अंतःपुर में प्रवेश दिया गया। यह सारी घटनाएँ शक शासन की स्थापना की ही आगाज़ थी। तथापि, जैन राजकुमार विक्रमादित्य ने उसके बाद विदेशी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org