________________ बाहुबलि तथा बादामी चालुक्य | 57 समावेशित थीं। जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस नाम के विभिन्न रूप मिलते हैंजैसे पलसिगेनाडु, पलसिगे देश तथा हलसिगेनाडु। पलसिगे के जिनेंद्रभवन को सुद्दि कुंदूर विषय (धारवाड़ में स्थित वर्तमान नरेंद्र) के वसंत वाटिका ग्राम से संपन्न किया था। पलसिगेनाडु ने कदंबों के कार्यकाल में गोवा में उतने ही महत्व का स्थान होने का सम्मान पाया। बैलहोंगल तथा खानापुर तालूका (बेलगांव जिला) के शिलालेख इस वरीयता को निश्चित करते हैं। __ संख्या की दृष्टि से विद्यमान जैन सामग्री की संख्या बहुत अधिक नहीं भी रही होगी परंतु गुणात्मक रूप से चालुक्य श्रेष्ठ, शक्तिशाली एवं वैशिष्ट्यपूर्ण जैन संस्कृति के सच्चे निर्माता थे। अतः अहिंसा की अमृतधारा का नाभिकेंद्र ऐहोळे तथा बादामी के इर्द गिर्द ही था। जिससे किसुवोळाल (प दकल) की छाप के पूर्वी स्मारक गौरव प्राप्त कर फैलते फूलते नज़र आने लगे। स्यादवाद की लहर राजतंत्र के कोने कोने में फैलने लगी। उसका वर्चस्व जैसा कि पहले उल्लेखित है, जैन केंद्रों जैसे कोपण, पुलिगेरे, अण्णिगेरे, अडरु, होम्बुज, हळ्ळूर तथा श्रवणबेळगोळ में था। .. सातवाहनों ने निग्रंथ सूत्रल के बीज बोये और पूर्वी कदंबों ने जैनधर्म के सामर्थ्य को बढाया। दो अन्य समकालीन राजवंश कर्नाटक के दक्षिण में गंग तथा उत्तर में चालुक्यों ने सौहार्दपूर्ण वातावरण निर्माण करने के लिए एक साथ गति से उसको बढाया तथा तीव्र गतिमान बनाया। विशेषतः चालुक्यों ने अनेकान्त को सुचारू रूप से चलाने के लिए उपजाऊ जमीन का निर्माण किया। जैनधर्म का विकास तथा प्रसार शक्ति दर शक्ति होने लगा। क्योंकि यह दोनों सामान्य तथा राजपरिवार के लोगों के निकट था। इसने इसे हर उतार चढाव में संभलने तथा जीवित रखने में शक्ति दी। अपने प्रभाव को बनाए रखते हुए, जैनधर्म ने चालुक्य समाज में समाकलन रखा और जैनेतर मतों तथा धर्मों के साथ सौहार्द तथा सहअस्तित्व बनाए रखा। जैनमंदिरों अथवा स्मारकों के निर्माण मात्र से ही कर्नाटक में जैनधर्म विकसित नहीं हुआ था। बल्कि जीवित रखने की खातिर किए गए प्रयत्न जैसे इन प्रस्थापित जैन स्मारकों तथा केंद्रों को दिए जाने वाले छोटे बडे अनुदानों ने कर्नाटक में जैनधर्म की लोकप्रियता तथा विकास के लिए आवश्यक जीवनी शक्ति प्रदान की। इसका स्पष्टिकरण विभिन्न कालों के विभिन्न राजवंशो के शिलालेखों द्वारा होता है। (नरसिंह मूर्ति A.V: Karnatak kings and Jainism A study 1976-: 60-69) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org