________________ का त्याग करके देहातीत होकर जीने की एक कला है। समाधिमरण साधनामय जीवन की चरम और परम परिणति है, साधना के भव्य प्रासाद पर स्वर्ण-कलश आरोपित करने के समान है। जीवन पर्यन्त आन्तरिक शत्रुओं के साथ किए गए संग्राम में अन्तिम रूप से विजय प्राप्त करने का महान् अभियान है। इस अभियान के समय वीर साधक मृत्यु के भय से सर्वथा मुक्त हो जाता है। समाधिमरण अंगीकार करने से पूर्व साधक को यदि अवसर मिलता है तो वह उसके लिए तैयारी कर लेता है। वह तैयारी सल्लेखना के रूप में होती है। काय और कषाय को कृश और कृशतर करना सल्लेखना है। कभी-कभी यह तैयारी बारह वर्ष से पहले प्रारम्भ हो जाती है। सल्लेखना व समाधिमरण की विशेषताएं: 1. जैनधर्म की दृष्टि से शरीर और आत्मा -ये दोनों पृथक-पृथक हैं। जैसे मोसम्बी और उसके छिलके। 2. आत्मा निश्चय नय की दृष्टि से पूर्ण विशुद्ध है। वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र, अनन्त आनन्द से युक्त है। जो शरीर हमें प्राप्त हुआ है उसका मूल कर्म है। कर्म के कारण ही पुनर्जन्म है, मृत्यु है, व्याधियाँ हैं। 3. दैनन्दिन जीवन में जो धार्मिक साधना पर, तप पर बल दिया गया है, उसका मूल उद्देश्य है आत्मा में जो कर्म-मैल है, उसको दूर करना। 4. जब शरीर में वृद्धावस्था का प्रकोप हो, रुग्णता हो, अकाल आदि के कारण शरीर के नष्ट होने का प्रसंग उपस्थित हो, उस समय साधक को सल्लेखना व्रत ग्रहण कर आत्मभाव में स्थिर रहना चाहिए। सल्लेखना आत्मभाव में स्थिर रहने का महान् उपाय है। 5. सल्लेखना व्रत ग्रहण करने वाले को पहले मृत्यु के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। मृत्यु की जानकारी के लिए आचार्यों ने अनेक उपाय बताये हैं। उपदेशमाला के आम्नाय आदि के द्वारा आयु का समय सरलता से जाना जा सकता है। 6. सल्लेखना करने वाले साधक का मन वासना से मुक्त हो, उसमें किसी भी प्रकार की दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। 7. सल्लेखना करने से पूर्व जिनके साथ कभी भी और किसी भी प्रकार का . वैमनस्य हुआ हो उनसे क्षमा-याचना कर लेनी चाहिए और दूसरों को भी क्षमा प्रदान कर देनी चाहिए। 8. सल्लेखना में तनिक भी विषम भाव न हो, मन में समभाव की मन्दाकिनी सतत ... प्रवाहित रहे। प्राकृतविद्या जनवरी-दिसम्बर (संयुक्तांक) '2004 40 93